Friday, December 7, 2018

धर्म मूर्खों को और मूर्ख बनाता है

धर्म मूर्खों को और मूर्ख बनाता है

बात हिन्दू या मुसलमान की नहीं होती, ना ईसाईयों और यहूदियों की होती। बात होती है बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों की। बहुसंख्यक किसी भी धर्म का हो, उसकी एक साइकोलॉजी होती है। वो अल्पसंख्यक के साथ वैसे ही बर्ताव करता है जैसे अपने घर की बहू के साथ। मतलब अल्पसंख्यक रहे तो हमारे हिसाब से। अपनी ताक़त का बार-बार प्रदर्शन कर वो शायद अपनी असभ्यता और संकीर्णता दिखा रहा होता है या अंदर से असुरक्षित होता है कि अगर किसी दिन ये सत्ता अल्पसंख्यक के हाथ आ गयी तो क्या होगा। ये साइकोलॉजी आप मुस्लिम प्रधान देश, ईसाई प्रधान देश या हिन्दू प्रधान देश…सब जगह पाएंगे।
मैं मेरे देश के मुस्लिमों के साथ इसलिए हूँ क्योंकि वो अल्पसंख्यक हैं और इसलिए बहुत मायनों में उनके साथ अन्याय होता है। लोगों की ज़िन्दगी बर्बाद होते देखी है सिर्फ इसलिए क्योंकि वो मुस्लिम थे, अल्पसंख्यक थे। मैं उनके साथ उनके धर्म की वजह से नहीं हूँ और ना मैं किसी धर्म को महान मानता हूँ। मैं दोहरा रहा हूँ कि महान कुछ भी नहीं होता। आप जिस दिन खुद के जाति-धर्म की पहचानों पर गर्व करना बंद कर देंगे, उस दिन अपनी जाति-धर्म के लोगों के किये गए गलत कामों पर शर्म भी आनी बंद हो जायेगी।

करोड़ों लोग कथा सुनने जाते हैं, प्रवचन सुनने जाते हैं। उनका मन बदला होता तो क्या देश की हालत ऐसी होती? किसी का दिल दुखाने से पहले वो एक मिनट नहीं सोचते। कई औरतों को तो मैंने देखा है कि बाबा जी की बड़ी भक्तन लेकिन घर आकर बहू को पीट भी देती है। आदमी भगवान का पाठ करके आता है या नमाज़ करके आता है और घर की औरतों के साथ अन्याय कर रहा होता है या देख रहा होता है। मेरे पड़ोसी इतना ऊंचा मंत्र का जाप करते हैं कि लाउडस्पीकर की ज़रुरत नहीं लेकिन रिश्वत को वो जायज़ ठहराते हैं।

क्यों हम अपने ईश्वर के साथ इंसानों जैसा बर्ताव करते है। इंसानों जैसी शक्ल बना देते हैं, खाना खिलाते हैं। लेकिन भूल जाते हैं कि कुदरत ही तो ईश्वर है जिसे हमने पूरी तरह उजाड़ दिया है। हमें पानी देने वाली नदियां सूख रही हैं। धूप अब खतरनाक हो गयी है। जंगल ख़त्म हो रहे हैं। जब बाढ़, सुनामी, भूकंप आता है तो आपके व्रत उसको रोक नहीं सकते। जिस दिन सांस लेना और दूभर हो जायेगा, उस दिन भी गाय, क़ुरान, बाइबल आपको सांस नहीं दे पाएंगी। ईश्वर की कुदरत हमारे सामने है और हम उसी को अनदेखा कर रहे हैं। कुदरत तो एक जैसा ही बर्ताव करती है हर व्यक्ति के साथ। यहीं ये हिंट लो कि सब एक ही हैं। धर्म तो बस बिज़नेस है।

मैं लिबरल हूँ, इसलिए सब धर्मों की इज़्ज़त भी करना आता है और उनकी आलोचना भी। अगर मुझे लाउडस्पीकर सुनना है तो सभी धर्मों का सुनना है वरना किसी का नहीं सुनना है। साधारण बात है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे सब सुनना पसंद है और अगर वो किसी दूसरे के लिए खलल है तो सब कुछ सुनना नापसंद है। मैं शाकाहारी हूँ और किसी भी जानवर के कटते हुए नहीं देख सकता। लेकिन मुझे किसी व्यक्ति से कोई दिक्कत नहीं है कि वो क्या खाये। सारी दुनिया में अगर सब शाकाहारी हो गए या मांसाहारी हो गए तो पूरी साइकिल ख़राब हो जायेगी। ये सब ढकोसला है कि ये जानवर नहीं खाना या इन दिनों में नहीं खाना।

लाउडस्पीकर पर बैन लगना ही चाहिए। सबसे पहले इस देश के राजनितिक दलों के लाउडस्पीकर पर जो अभी पूरे देश में भी बेतुके से गाने बजाते घूम रहे हैं, साथ में असल गाना ही हमारे लिए बर्बाद कर रहे हैं कि कभी सुनने का मन ना करे। फिर लगाइये जगराते वाले लाउडस्पीकर पर बैन। क्योंकि वो इतने फूहड़ और बेसुरे होते हैं कि माता आकर चप्पल मारेंगी और शायद शिव अपना तीसरा नेत्र खोल दें।

इतने देवी देवता और ईश्वर बना लिए हैं हमने। ऐसा क्या किया था उन्होंने। किसी इंसान ने ही किताबों में उनके बारे में लिखा और हमने मान लिया। हमारे आस-पास इंसानों ने जादुई कारनामे किये हैं, खोज की हैं। किसी ने ब्रह्मांड खोजा, किसी ने इ-मेल बनाया, फ़ोन बनाया। क्या हमने उनको भगवान माना? हमने दरअसल उन लोगों को जूते मारे जिन्होंने पहले बार कहा कि धरती सूरज के चारों तरफ चक्कर लगाती है। इतना ही लेवल है धार्मिक अंधभक्तों का। बस, सबका जीना हराम करो और बोलो कि हमारा धर्म सबसे बढ़िया। क्योंकि ये करना आसान है। इंसानियत के लिए मुश्किल काम करने वालों को जूते मारना भी आसान है।

सबसे ज़रूरी बात – धर्म सबसे बड़ा हथियार है राजनीति का सदियों से। पहले मंदिर मस्जिद इसलिए ही तोड़े जाते थे क्योंकि सत्ता वहीँ से चलती थी। मूर्ख मत बनिए।
___________________________

Wednesday, August 22, 2018

अंधविश्वास-सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ तर्क व मानवतावाद की बात करने वाला नेता

राम स्वरूप वर्मा (22 अगस्त 1923 - 19 अगस्त 1998)

लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का ‘कबीर’ कहा जाता है. किसान परिवार मेें जन्मे वर्मा ने एक लेखक, समाज सुधारक और चिंतक के रूप में उत्तर भारत पर गहरा असर डाला.


एक ऐसे वक्त में जब अंधश्रद्धा का विरोध करने वाले लेखकों नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे व एमएम कलबुर्गी आदि को इसके लिए अपनी जान गंवानी पड़ रही है और बड़ी संख्या में ऐसे संगठनों और लोगों को अतिवादियों की धमकियों और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है तो आज से करीब पांच छह दशक पहले इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले राम स्वरूप वर्मा की प्रासंगिकता बढ़ जाती है.

उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के गौरीकरन नामक गांव के एक किसान परिवार में 22 अगस्त 1923 को जन्मे राम स्वरूप वर्मा का ध्येय एक ऐसे समाज की संरचना करना था जिसमें हर कोई पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके.

आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया के करीबी रहे रामस्वरूप वर्मा कई बार विधायक चुने गए थे. वे 1967 में चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्री रहने के दौरान उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री भी रहे. प्रखर एवं प्रतिबद्ध समाजवादी रामस्वरूप वर्मा आजादी के बाद भारतीय राजनीति में उस पीढी के सक्रिय राजनेता थे, जिन्होंने विचारधारा और व्यापक जनहितों की राजनीति के लिये अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया.

लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का कबीर कहा जाता है. 1957 में रामस्वरूप वर्मा सोशलिस्ट पार्टी से भोगनीपुर विधानसभा से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गये, उस समय उनकी उम्र 34 वर्ष थी. 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से, 1969 में निर्दलीय, 1980, 1989 में शोषित समाज दल से विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए, 1999 में छठी बार शोषित समाज दल से विधानसभा के सदस्य चुने गये.

उन्होंने अर्जक संघ की स्थापना 1 जून, 1968 को की थी.

अर्जक संघ मानववादी संस्कृति का विकास करने का काम करता है. इसका मकसद मानव में समता का विकास करना, ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करना और सबकी उन्नति के लिए काम करना है. संघ 14 मानवतावादी त्योहार मनाता है. इनमें गणतंत्र दिवस, आंबेडकर जयंती, बुद्ध जयंती, स्वतंत्रता दिवस के अलावा बिरसा मुंडा और पेरियार रामास्वामी की पुण्यतिथियां भी शामिल हैं.

अर्जक संघ के अनुयायी सनातन विचारधारा के उलट जीवन में सिर्फ दो संस्कार ही मानते हैं- विवाह और मृत्यु संस्कार. शादी के लिए परंपरागत रस्में नहीं निभाई जातीं. लड़का-लड़की संघ की पहले से तय प्रतिज्ञा को दोहराते हैं और एक-दूसरे को वरमाला पहनाकर शादी के बंधन में बंध जाते हैं.

मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार मुखाग्नि या दफना-कर पूरा किया जाता है, लेकिन बाकी धार्मिक कर्मकांड इसमें नहीं होते. इसके 5 या 7 दिन बाद सिर्फ एक शोकसभा होती है. अर्जक संघ के मुताबिक, दरअसल हमारे हिंदू समाज में जन्म के आधार पर बहुत ही ज्यादा भेदभाव किया गया है. कोई पैदा होते ही ब्राह्मण, तो कोई वाल्मीकि होता है. ब्राह्मण समाज धर्मग्रंथों का सहारा लेकर सदियों से नीची जातियों का दमन करते आए हैं.

उनके बारे में भाषाविद राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘रामस्वरूप वर्मा सिर्फ राजनेता नहीं थे, बल्कि एक उच्चकोटि के दार्शनिक, चिंतक और रचनाकार भी थे. उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की है. क्रांति क्यों और कैसे, मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद, मानववाद प्रश्नोत्तरी, ब्राह्मणवाद महिमा क्यों और कैसे, अछूतों की समस्या और समाधान, आंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली, निरादर कैसे मिटे, शोषित समाज दल का सिद्धांत, अर्जक संघ का सिद्धांत, वैवाहिक कुरीतियां और आदर्श विवाह पद्धति, आत्मा पुनर्जन्म मिथ्या, मानव समता कैसे, मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं.’

वे कहते हैं, ‘वर्मा की अधिकांश रचनाएं ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं. पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जात-पात, ऊंच-नीच का भेदभाव और चमत्कार सभी ब्राह्मणवाद के पंचांग हैं जो जाने-अनजाने ईसाई, इस्लामी, बौद्ध आदि मानववादी संस्कृतियों में प्रकारांतर से स्थान पा गए हैं. वे मानववाद के प्रबल समर्थक थे. वे मानते थे कि मानववाद वह विचारधारा है जो मानव मात्र के लिए समता, सुख और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है.’

रामस्वरूप ने आंबेडकर की पुस्तक जब्ती के खिलाफ आंदोलन भी किया था. डॉक्टर भगवान स्वरूप कटियार द्वारा संपादित किताब ‘रामस्वरूप वर्मा: व्यक्तित्व और विचार’ में उपेंद्र पथिक लिखते हैं, ‘जब उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक जाति भेद का उच्छेद और अछूत कौन पर प्रतिबंध लगा दिया तो रामस्वरूप ने अर्जक संघ के बैनर तले सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया, साथ ही अर्जक संघ के नेता ललई सिंह यादव के हवाले से इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया. वर्मा जी खुद कानून के अच्छे जानकार थे. अंतत: मुकदमे में जीत हुई और उन्होंने सरकार को आंबेडकर के साहित्य को सभी राजकीय पुस्तकालयों में रखने की मंजूरी दिलाई.’

उन्हें याद करते हुए वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस कहते थे, ‘यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतना मौलिक विचारक और नेता अधिक दिन जीवित नहीं रह सका, लेकिन इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि समाज को इतने क्रांतिकारी विचार देने वाले वर्मा को उत्तर भारत में लगभग पूरी तरह से भुला दिया गया.’

रामस्वरूप वर्मा ने कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. उनकी दिलचस्पी राजनीति से अधिक सामाजिक परिवर्तन में थी. वह वैज्ञानिक चेतना पर जोर देते थे. उनका निधन 19 अगस्त, 1998 को लखनऊ में हुआ.

एक ऐसे वक्त में जब अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ अतिवादियों से ही नहीं पूंजीवादी व्यवस्था से भी लड़ना है तो राम स्वरूप वर्मा के वैज्ञानिक, तर्कयुक्त और पाखंड से दूर विचार उपयोगी साबित हो सकते हैं.





Friday, May 4, 2018

मजदूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक कार्ल मार्क्स (5 मई 1818 - 14 मार्च 1883)

क्या आप उनलोगों में से हैं जो अन्याय, गैर-बराबरी और शोषण को खत्म होते देखना चाहते हैं?

अगर हां, तो आपके लिए आज का दिन यानी 5 मई बहुत ही ख़ास है. इस दिन कार्ल मार्क्स का जन्म हुआ था और आज उनका 200वां जन्मदिन है.

जिन्होंने 20वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ा होगा, वो इस बात से सहमत होंगे कि मार्क्स की क्रांतिकारी राजनीति की विरासत मुश्किलों भरी रही है.

मार्क्स के चार विचार जो आज भी ज़िंदा हैं

समाज में एक मजबूत सोशल इंजीनियरिंग उनकी विचारों से ही प्रेरित मानी जाती है. साम्राज्यवाद, आज़ादी और सामूहिक हत्याओं से उनके सिद्धांत जुड़ने के बाद उन्हें विभाजनकारी चेहरे के रूप में देखा जाने लगा.

लेकिन कार्ल मार्क्स का एक दूसरा चेहरा भी है और वो है एक भावनात्मक इंसान का. दुनिया की बेहतरी में उनके विचारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

1. वो बच्चों को स्कूल भेजना चाहते थे, न कि काम पर

कई लोगों इस वाक्य को एक बयान के तौर पर ले सकते हैं पर साल 1848 में, जब कार्ल मार्क्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिख रहे थे, तब उन्होंने बाल श्रम का जिक्र किया था.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ के साल 2016 में जारी आंकड़ों के मुताबिक आज भी दुनिया में दस में से एक बच्चा बाल श्रमिक है.

बहुत सारे बच्चे कारखाना को छोड़कर स्कूल जा रहे हैं तो यह कार्ल मार्क्स की ही देन है.

द ग्रेट इकोनॉमिस्ट की लेखिक लिंडा यूह कहती हैं, "मार्क्स के साल 1848 में जारी घोषणापत्र में बच्चों को निजी स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा देना उनके दस बिंदुओं में से एक था. कारखानों में बाल श्रम पर रोक का भी जिक्र उनके घोषणा पत्र मे किया गया था."

2. वो चाहते थे कि आप अपनी ज़िंदगी के मालिक खुद हों

क्या आज आप दिन के 24 घंटे और सप्ताह के सात दिन काम करते हैं? काम के समय में लंच ब्रेक लेते हैं? एक उम्र के बाद आपको रिटायर होना और पेंशन उठाने का हक़ है?

अगर आपका जबाव हां में है तो आप कार्ल मार्क्स को धन्यवाद कह सकते हैं.

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर माइक सैवेज कहते हैं, "पहले आपको ज़्यादा लंबे वक्त तक काम करने को कहा जाता था, आपका समय आपका नहीं होता था और आप अपने खुद की ज़िंदगी के लिए नहीं सोच पाते थे."

कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि कैसे एक पूंजीवादी समाज में लोगों को जीने के लिए श्रम बेचना उसकी मजबूरी बना दिया जाएगा.

मार्क्स के अनुसार अधिकांश समय आपको आपकी मेहनत के हिसाब से पैसे नहीं दिए जाते थे और आपका शोषण किया जाता था.

मार्क्स चाहते थे कि हमारी ज़िंदगी पर हमारा खुद का अधिकार हो, हमारा जीना सबसे ऊपर हो. वो चाहते थे कि हम आज़ाद हो और हमारे अंदर सृजनात्मक क्षमता का विकास हो.

सैवेज कहते हैं, "असल में मार्क्स कहते हैं कि हमलोगों को वैसा जीवन जीना चाहिए जिसका मूल्यांकन काम से न हो. एक ऐसा जीवन जिसका मालिक हम खुद हो, जहां हम खुद यह तय कर सकें कि हमे कैसे जीना है. आज इसी सोच के साथ लोग जीना चाहते हैं."

3. वो चाहते थे कि हम अपने पसंद का काम करें

आपका काम आपको खुशी देता है जब आपको अपने मन का काम करने को मिलता है.

जो हम जीवन में चाहते हैं, या फिर तय करते हैं, उसमें रचनात्मक मौके मिले और हम उसका प्रदर्शन कर सके तो यह हमारे लिए अच्छा होता है.

लेकिन जब आप दुखी करने वाला काम करते हैं, जहां आपका मन नहीं लगता है तो आप निराश होते हैं.

ये शब्द किसी मोटिवेशनल गुरु के नहीं है बल्कि 19वीं शताब्दी के कार्ल मार्क्स ने कही थी.

साल 1844 में लिखी उनकी किताब में उन्होंने काम की संतुष्टि को इंसान की बेहतरी से जोड़कर देखा था. वो पहले शख़्स थे जिन्होंने इस तरह की बात पहली बार की थी.

उनका तर्क था कि हम अपना अधिकांश समय काम करने में खर्च करते हैं, इसलिए यह ज़रूरी है कि उस काम से हमें खुशी मिले.

4. वो चाहते थे कि हम भेदभाव का विरोध करें

अगर समाज में कोई व्यक्ति ग़लत है, अगर आप महसूस कर रहे हैं कि किसी के साथ अन्याय, भेदभाव या ग़लत हो रहा है, आप उसके ख़िलाफ़ विरोध करें. आप संगठित हों, आप प्रदर्शन करें और उस परिवर्तन को रोकने के लिए संघर्ष करें.

संगठित विरोध के कारण कई देशों की सामाजिक दशा बदली. रंग भेदभाव, समलैंगिकता और जाति आधारित भेदभाव के ख़िलाफ़ क़ानून बने.

लंदन में होने वाले मार्क्सवादी त्योहार के आयोजकों में से एक लुईस निलसन के अनुसार, "समाज को बदलने के लिए क्रांति की ज़रूरत होती है. हमलोग समाज की बेहतरी के लिए विरोध प्रदर्शन करते है. इस तरह आम लोगों ने आठ घंटे के काम करने का अधिकार पाया."

कार्ल मार्क्स की व्याख्या एक दार्शनिक के रूप में की जाती है, पर निलसन इससे असहमत दिखते हैं. वो कहते हैं, "जो कुछ भी उन्होंने लिखा और किया, वो एक दर्शन की तरह लगते हैं पर जब आप उनके जीवन और कामों को गौर से देखेंगे तो आप पाएंगे कि वो एक एक्टिविस्ट थे. उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कामगार संघ की स्थापना की. वो गरीब लोगों के साथ हड़ताल में शामिल हुए."

निलसन कहते हैं, "महिलाओं ने वोट देने का अधिकार कैसे प्राप्त किया? यह संसद से नहीं दिया, बल्कि इसलिए प्राप्त किया क्योंकि वो संगठित हुए और प्रदर्शन किया. हमलोग को शनिवार और रविवार को छुट्टी कैसे नसीब हुई? इसलिए नसीब हुई क्योंकि सभी मजदूर संगठित हुए और हड़ताल पर गए."

5. उन्होंने सरकारों, बिजनेस घरानों और मीडिया के गठजोड़ पर नजर रखने को कहा

आपको कैसा लगेगा अगर सरकार और बड़े बिजनेस घराने सांठगांठ कर लें? क्या आप सुरक्षित महसूस करेंगे अगर गूगल चीन को आपकी सारी जानकारी दे दे?

कार्ल मार्क्स ने कुछ ऐसा ही महसूस किया था 19वीं शताब्दी में. हालांकि उस समय सोशल मीडिया नहीं था फिर भी वो पहले शख़्स थे जिन्होंने इस तरह के सांठगांठ की व्याख्या की थी.

ब्यूनस आर्यस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वैलेरिया वेघ वाइस कहते हैं, "उन्होंने उस समय सरकारों, बैंकों, व्यापारों और उपनिवेशीकरण के प्रमुख एजेंटों के बीच सांठगांठ का अध्ययन किया. वो उस समय से पीछे 15वीं शताब्दी तक पहुंचे."

वैलेरिया वेघ वाइस के मुताबिक उनका निष्कर्ष यह था कि अगर कोई प्रथा व्यापार के लिए फ़ायदेमंद थी, जैसे गुलामी प्रथा उपनिवेशीकरण के लिए अच्छी थी तो सरकार इसका समर्थन करती थी.

वो आगे कहते हैं, "कार्ल मार्क्स ने मीडिया की ताक़त महसूस की थी. लोगों की सोच प्रभावित करने के लिए यह एक बेहतर माध्यम था. इन दिनों हम फेक़ न्यूज़ की बात करते हैं, लेकिन कार्ल मार्क्स ने इन सब के बारे में पहले ही बता दिया था."

वैलेरिया वेघ वाइस कहते हैं, "मार्क्स उस समय प्रकाशित लेखों का अध्ययन करते थे. वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गरीब लोगों के द्वारा किए गए अपराधों को ज्यादा जगह दी जाती थी. वहीं, राजनेताओं के अपराधों की ख़बर दबा दी जाती थी."


'हांथ से निकली लड़कियां'

ज़माना तुम्हें देखता है


कुछ विस्मय, कुछ घृणा तो कुछ भय से


इसलिए कि तुम वो नहीं जो तुमसे आशा की गयी थी


जो तुम्हें ज़माना बनाना चाहता था


तुमने उस से बग़ावत की और बन गयी


वो जो तुम बनना चाहती थी।


 

तुम्हें अच्छा कहा जाता अगर तुम


अपना सर ढंक के उसे झुका लेती


रिवाज़ों, संस्कारों की पाषाण मूर्ति के सामने;


अपने सपनों को देखने की ज़िम्मेदारी देती बुज़ुर्गों को


या उनके सपनों को अपनी ज़िम्मेदारी मानती


लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया।


 

तुमसे आशा की गयी थी कि


तुम खानदान का सम्मान बनो


अपने आत्मसम्मान की कीमत पर;


तुम उड़ो तो ज़रूर लेकिन पतंग की तरह


जिसकी उड़ान सीमित, नियंत्रित होती है


लेकिन तुम उन आशाओं के विपरीत गयी।


 

तुमने चुना किसी की बेटी, बहु, प्रेमिका, माँ से ऊपर


खुद का अस्तीत्व बनाये रखना


जिस वजह से तुम पर लगे इल्ज़ाम


ग़ैर जिम्मेदार, स्वार्थी, कठोर होने के


मानो जुर्म हो खुद के लिए जीना तुम्हारा


लेकिन तुमने परवाह नहीं की उसकी।


 

तुमने नहीं माना कि किसी का भविष्य


तय करे तुम्हारा भी भविष्य


तुमने गला नहीं घोटा अपनी महत्वकांक्षाओं का


जैसे तुम्हारी माँ ने किया था शायद;


सब चाहते थे तुम में तुम्हारी माँ को देखना


लेकिन तुम तुम्हारी माँ जैसी नहीं बनी।


 

तुमने चुने रास्ते वो जो तुम्हारे लिये सही थे


तुमने किये वो फैसले जो तुम्हारे हक़ में थे


तुम्हें नहीं मानी वो किताबें जो कहती थी


कि तुम्हारा जीवन त्याग है, बलिदान है


तुमने हासिल करने की ठानी वो


जिसपे तुम्हारा हक़, जिसमे तुम्हारी मेहनत है।


 

तुम बन गयी बिगड़ी हुई लड़कियां


हाथ से निकली हुई लड़कियां


जिसकी परछाई से भी बचाती माँए अपनी बेटियों को


जिनके नाम की कहानियां सुनाई जाती है


भूतों की कहानियों जैसे छोटी बच्चियों को


और कहा जाता इन सी मत बनना।


 

लेकिन तुम्हारा शुक्रिया बिगड़ी हुई लड़कियों


इन सब के बावजूद ऐसी होने के लिए जैसी तुम हो


शुक्रिया देने के लिए अपनी कहानियां मुझे


जो मैं अपनी बच्चियों को सुनाऊंगा और कहूँगा


मैं नहीं कहता कि इन जैसी ही बनो तुम


        मैं चाहता हूं तुम इनसे सीखो बनना वो जो तुम बनना चाहती हो।


गले मिलना पूरी दुनिया में प्रेम का प्रतीक है पर भारत में अश्लीलता का


गले मिलना कोई बुरी बात नहीं है। ना जाने जीवन में ऐसे कितने मौके आते हैं जब आप किसी  इंसान को गले लगाते हैं। गले मिलना स्वभाव प्रदर्शन की एक उपयुक्त विधि है। यह तरीका दिखाता है कि आप उस व्यक्ति की परवाह करते हैं और हर अच्छे बुरे समय में उसका साथ देंगे। एक ये भाव ही तो होता है जो निकटता दर्शाता है। प्रेम और ममता की निशब्द अभिव्यक्ति आखिर गले लगाने से बेहतर और क्या हो सकती  है?

एक मां ममता की आसक्ति में अपने बच्चे को गले लगा लेती है, कई खुशी और गम के मौकों पर एक भाई अपनी बहन को तथा एक पति अपनी पत्नी को गले लगा लेते हैं। क्रिकेटर मैदान पर खुशी और एकता के प्रदर्शन के लिए एक दूसरे को गले लगा लेते हैं तो बॉलीवुड के बहुत सारे कार्यक्रमों के मंच पर कलाकार और निर्माता निर्देशक भी गले मिलते दिखाई देते हैं।

यहां तक कि हमारे देश के प्रधानमंत्री भी किसी विदेशी मेहमान के आने पर कई बार प्रोटोकोल तोड़कर गले लगाकर भारतीय सरज़मीं पर उनका स्वागत करते दिखाई देते हैं। यही नहीं स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी वर्षों पहले क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने स्नेह से गले लगाया था। यह किसी को धन्यवाद देने के लिए किया जाता है जो खुशी प्रकट करता है। यह बहुत सारे संदेश देता है क्योंकि यह दिल की गहराई तक महसूस होता है।

लेकिन मुझे नहीं पता कोलकाता मेट्रो में सफर कर रहे कपल की गले मिलने की वजह से लोग क्यों उग्र हो गये। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ लोग गले लगने को सिर्फ सेक्स से जोड़कर देखते हों और किसी ऐसे मोके पर ऐसी स्थिति का विरोध करने उतर आते हो?

गले लगने की वजह से ही पिछले साल तिरुअनंतपुरम के एक स्कूल में बारहवीं के दो स्टूडेंट्स निलंबित कर दिए गए थे लड़के ने किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान लड़की की तारीफ करते हुए उसे गले लगा लिया था स्कूल प्रबंधन को उनका गले लगना नागवार गुज़रा था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जहां गले मिलना पूरी दुनिया में प्रेम का प्रतीक है वहां भारत में इसे सेक्स का प्रतीक समझा जाता है।
दरअसल गले लगने को अभी भी हमारे यहां कई जगह बेशर्मी का प्रदर्शन समझा जाता है। कुछ लोग हैं जो अभी भी इसे खुले में उपयुक्त नहीं समझते, शायद हो सकता है वो कभी बिना सेक्स के गले मिले ही ना हो? इस घटना पर भी जैसा मैंने सुना है कि एक बुजुर्ग व्यक्ति ने विरोध शुरू किया था। देखते-देखते विरोधियों की संख्या बढ़ गयी और मामला कुटमकुटाई तक जा पहुंचा। पर क्या इसमें सारा देश और समाज शामिल है?

दरअसल हम मामले को ज़्यादा तूल न देकर इसे दूसरे तरीके से भी समझ सकते है। एक बुज़ुर्ग जो आज 70 से पचहतर वर्ष की उम्र का है, उसे प्रेम से गले मिलना सेक्स ही दिखाई देता है क्योंकि उसने कभी जीवन में प्रेम किया ही ना हो तो उसे प्रेम के आलिंगन और सेक्स के आलिंगन में कोई खास अंतर नहीं दिखाई देगा। शायद ये फासला है सोच का! और मेरे ख्याल से इस फासले को किसी आन्दोलन से नहीं बल्कि प्रेम से खत्म किया जा सकता है।

जिन लोगों को यह घटना अश्लील लगी मुझे नहीं पता उनकी नज़र में अश्लीलता की परिभाषा क्या है। किसी को मटकना अश्लील लगता है, किसी को खुलकर हंसना, किसी को नाचना, किसी को चुम्बन में अश्लीलता दिखाई देती है और किसी को कोलकाता मेट्रो की तरह गले मिलना। जो लोग सोच रहे हैं कि गले मिलना कितना भारतीय है और कितना विदेशी? तो ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है, क्योंकि ईद हो या दीपावली, शादी हो या कोई दु:खद हादसा हम सब पहले से ही गले लगते- लगाते आये हैं। यदि किसी को यह बुरा लगता है तो इस मानसिकता की आज के भारत में कोई जगह नहीं हैं।
____________________________

Wednesday, March 28, 2018

क्या लोहिया और अम्बेडकर को मिलाकर एक बड़े समाजवाद की कल्पना की जा सकती है?

डॉ. राममनोहर लोहिया को याद करने के कई तरीके हो सकते है। उनके व्यक्तित्व और समाजवाद के विचार में एक-दूसरे से गुंथे हुए कई पहलू हैं जिसके आधार पर डॉ. लोहिया को याद किया जा सकता है। कभी वो महिलाओं की अस्मिता के लिए बेबाकी से बोलने वाले व्यक्ति होते हैं, तो कभी “कुजात गांधी” हो जाते है, इन सब से आगे बढ़कर वो भारतीय लोकसभा के राजनीति में नेहरू के पूर्ण बहुमत सरकार के सामने एकमात्र ऐसा विपक्ष बन जाते है जो संसद को सड़क तक ले आते है। ज़ाहिर है डॉ लोहिया का व्यक्तित्व और संघर्ष उनको बहुआयामी बना देता है।


हाल के दिनों में उत्तरप्रदेश के उपचुनावों में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के बाद जीत को बहुत बड़े राजनीतिक परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है। इस बहाने लोहियावादी और अंबेडकरवादी अपने-अपने राजनीतिक चिंतक डॉ लोहिया और डॉ अंबेडकर के विचारों में कई समस्याओं का व्यावहारिक समाधान की तलाश भी कर रहे हैं। आज डॉ. लोहिया को मौजूदा राजनीतिक संदर्भ में टटोलना अधिक उचित होगा क्योंकि डॉ. लोहिया समाजिक न्याय के लिए सामाजवाद लाना चाहते थे और डॉ अंबेडकर सामाजिक समता के लिए गणतंत्र की मुखालफत कर रहे थे।


सिद्धांतत: डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर दोनों ही जातिपरक मोबलाइजेशन का उपयोग अंतत: जातिव्यवस्था को तोड़ने के लिए ही करना चाहते थे, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर जो कुछ हुआ वह उनके स्वपनों के विपरीत ही है। दोनों ही विचारकों के सिद्धांत पिछड़ी और वंचित जातियों के बीच उभर रहे शक्तिशाली लोगों के सामाजिक-राजनैतिक आत्मरेखांकन का अस्त्र मात्र बनकर रह गये हैं। जबकि डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर के विचार और स्वप्न की सीमाएं यह कभी नहीं थी।

कई बार डॉ. लोहिया और डॉ अम्बेडकर के विचारों को आरक्षण की राजनीति का जनक मान लिया जाता है और उनके व्यक्तित्व के एक पहलू पर तमाम आलोचनाएं गढ़ दी जाती हैं। जबकि आरक्षण की ज़ोरदार वकालत करते हुए भी डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर आरक्षण नीति से निकल सकने वाले “ज़हर” के प्रति “लगातार जागरूक रहने” की ज़रूरत पर बल भी देते हैं। साथ ही “उस ज़हर के डर से इस नीति की सृजनात्मक और उपचारात्मक चमत्कारी शक्ति” को कम करके आंकने के विरुद्ध भी चेतावनी देते है।

लोहिया और अम्बेडकर दोनों ने  इस “ज़हर” से बचने के लिए जिस जागरुकता का संकेत दिया है- क्या आज के जातीय उन्माद भरे माहौल में उनका नाम जपते सत्ता के भीतर-बाहर के लोग उस ओर ध्यान दे रहे हैं? आरक्षण नीति की व्यापकता को समझने की कोशिश कभी भी नहीं के बराबर रही है।

आज आरक्षणवादी राजनीति एंव संस्कृतिकरण क जो नज़ारा दिखाई पड़ रहा है उसमें डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर के उपयुक्त विश्लेषण की ज़रूरत अधिक है। क्योंकि आज आरक्षण की राजनीति के साथ अन्य सिफारिशों मसलन, प्रगतिशील भूमि सुधार, उत्पादन संबंधों में मूलगामी परिवर्तनों आदि समतामूलक परिकल्पनाओं से राजनीति ने कन्नी नहीं काट लिया है। फिर किस आधार पर आरक्षण नीति के ख़िलाफ असमानता का मरसिया पढ़ा जा रहा है? इसके अभाव में “नई संस्कृति” के सृजन की पूरी परिकल्पना जो दोनों ही विचारकों ने की थी, अधूरी ही साबित होगी। वास्तव में इन दोनों ही विचारकों की परिकल्पना को आज़ाद भारत में जिस राजनीतिक बेईमानी के साथ लागू किया गया, उसके परिणाम ही हमारे सामने आ रहे हैं। तमाम राजनीतिक ईमानदारी के अभाव में भी आरक्षण नीति ने देश के एक बड़े समुदाय को बेहतर जीवन शैली के तरफ ढकेला है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है।

डॉ लोहिया, डॉ. अम्बेडकर के मृत्यु के बाद मधु लिमये को पत्र में लिखते हैं-

“मुझे डॉक्टर अम्बेडकर से हुई बातचीत, उनसे संबंधित चिट्ठी-पत्री मिल गई है और उसे मैं तुम्हारे पास भिजवा रहा हूं. तुम समझ सकते हो कि डॉ.आंबेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा-बहुत व्यक्तिगत रहा है और वह अब भी है। मेरी बराबर आकांक्षा रही है कि वे मेरे साथ आएं, केवल संगठन में नहीं, बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी और यह मौका करीब मालूम होता था। मैं एक पल के लिए भी नहीं चाहूंगा कि तुम इस पत्र व्यवहार को हम लोगों के व्यक्तिगत नुकसान की नज़र से देखो। मेरे लिए डॉ. अम्बेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे और गांधीजी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन समाप्त की जा सकती है।”

यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर दोनों ही विचारक कभी भी एक साथ एक मंच पर भारतीय राजनीति में वो गर्मी पैदा नहीं कर सके, जिसकी मुखालफत दोनों करते थे। वास्तव में डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर दोनों ही अपने-अपने तरीकों से समतावादी समाज की स्थापना पर ही ज़ोर दे रहे थे। दोनों ही नई सभ्यता के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श को सामने रख रहे थे। आज भी तमाम उहापोह की अवसरवादी राजनीति के मध्य दोनों ही विचारक एक-दूसरे के विरोधी नहीं एक दूसरे के पूरक ही नज़र आते है।

आज जब तमाम नीतिगत फैसलों में तकनीकी चालबाज़ियों से धीरे-धीरे आरक्षण को कमोबेश खत्म करने की कोशिशें और वैज्ञानिक चेतना के सामने वेदों और हवन कुण्डों से सारी समस्याओं का समाधान खोजा जा रहा है। डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया के अनुयायियों का एक साथ आना राजनीतिक माइलेज के हिसाब से बीस होती दिख रही है। पर अधिक ज़रूरी यह है कि तमाम राजनीतिक अवसरवाद के साथ-साथ व्यवस्था परिवर्तन के सवालों के साथ ज़ोर-आज़माइश किया जाए जिससे नई संस्कृति मूल्यों का निर्माण हो और जड़ हो चुके समाज को गतिशील बनाया जा सके।



Tuesday, March 27, 2018

क्या लोहिया आज अकेले कांग्रेस से बेहतर विकल्प होते?

लोकतंत्र की राजनीति में विचारधारा और सत्ता की तलाश दोनों में एक अजीब किस्म का तालमेल होता है। शुद्ध विचारधारा अगर सत्ता की तलाश से अलग हो, तो वो टिकाऊ तो होता है, लेकिन असरदार नहीं होता। दूसरी तरफ अगर सत्ता को प्राथमिकता दें और विचारधारा की लगाम छूट जाए तो फिर सत्ता का घोड़ा बेलगाम दौड़ने लगता है। बात करते हैं ऐसे शख्स की जिसने सत्ता को चुनौती दी तो भारतीय राजनीति का जायंट किलर कहा गया, वो नेता जिसने नेहरू के विरुद्ध 1962 में फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में कम संसाधन होने के बावजूद पूरे दमखम से मुकाबला किया।


हम बात कर रहे हैं गांधी व मार्क्स के विचारों से समाजवाद की विचारधारा गढ़ने वाले और गठबंधन राजनीति के प्रणेता श्री राम मनोहर लोहिया की। एक बार नज़र डालते हैं कि अगर आज लोहिया जीवित होते, तो वर्तमान राजनीति पर क्या विचार रखते और वो किस तरह एक मज़बूत विपक्ष बन पाते।


संसदीय राजनीति नहीं तो सत्याग्रह


लोहिया का नारा था 4 घंटे अपने पेट को, लेकिन एक घंटा अपने देश को देना चाहिए।जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ भारत के लिए प्रत्येक नागरिक से साल में 100 घंटे मांगे थे, लोहिया की मांग शायद अधिक होती। उनका मानना था कि हर काम सरकार के ज़रिये नहीं हो सकता, कुछ रचनात्मक कार्य तो समुदाय को ही करना होता है। वो कहते थे अगर वोट से बात नहीं बनती तो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए अगले चुनाव का इंतज़ार न करें, सत्याग्रह अपनाएं। वर्तमान समय में वो किसानों, मज़दूरों, विधार्थियों की दुर्दशा पर एक क्रान्ति ज़रूर खड़ी करते जो काँग्रेस या एन्टी पार्टियां करने में अभी तक असमर्थ रही हैं।

भाषाई राजनीति

गीता अनिवार्य करना, हिंदी भाषा की दक्षिण राज्यों में अनिवार्यता आज की राजनीति के कुछ ऐसे विषय हैं जिसे राष्ट्रवादिता के घोल में मिलाकर वर्तमान सरकार ने खूब परोसा है। यह एक अभिशाप है की आज की काँग्रेस भाषाई लड़ाई का ना कोई समाधान निकाल पा रही है, ना विरोध कर पा रही है और न ही कोई विकल्प दे पा रही है। लोहिया होते, तो वो देसी राष्ट्रवादिता के पुरोधा होते हुए भी अपने अभियान को ताज़गी के साथ समाज की अधूरी दिमागी आज़ादी को पूरा करने के लिए आगे बढ़ाते। एक दुष्प्रचार फैला हुआ है कि लोहिया अंग्रेज़ी विरोधी थे। नहीं, वो मानसिक गुलामी के विरोधी थे, वे चाहते थे कि बच्चे अंग्रेज़ी समेत सभी भाषाओं के लिए अपनी दिमाग की खिड़कियां खोलकर रखें।

नर-नारी समता

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नाम पर सेल्फी खेल चल रहा है, बेटियां अगर सरकार का विरोध करे तो उनका चरित्र-हरण होता है और वहीं यौन हिंसा का विरोध करने पर BHU में जो नवरात्रों में लड़कियों की पिटाई की गई, उससे लोहिया काफी दुखी होते और जमकर वर्तमान सरकार के खिलाफ इस विषय पर बहस करते। उनका मानना था कि औरत को उसकी शरीर की सीमाओं में बांधना पुरुषों की कायरता का प्रतीक है।
उनकी दृष्टि से भारत की नारी का प्रतीक सावित्री नहीं, द्रौपदी होनी चाहिए। संकट पड़ने पर द्रौपदी ने खुली सभा में दु:शासन और दुर्योधन का मुकाबला किया और मित्र कृष्ण की मदद से भरी सभा में भीष्म पितामह का विरोध किया। नर-नारी समानता विषय पर जो समाज में नई चेतना व आत्मविश्वास जगी है, उसे आगे बढ़ता हुआ देख लोहिया खुश होते और महिलाओं के राजनीति में आरक्षण के इन सवालों पर अपनी पूरी ताकत लगा देते।

धर्मांध

जिस तरह से धर्मों के लिए या धर्मों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है, घरवापसी जैसे अभियान चलाये जा रहे हैं, हर संदर्भ को राष्ट्रवादिता से जोड़ा जा रहा है, लोहिया निष्पक्ष रूप से वर्तमान सरकार के सामने एक बड़ा विपक्ष बनकर उभरते। उनका मानना था कि धर्म, दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। उन्होंने चेतावनी दी थी कि एक तरफ हिन्दू जाती प्रथा का मारा हुआ है और मुसलमान में भी जाती-प्रथा और देसी-विदेशी का फर्क है। हर मुसलमान को बाबर, गोरी की औलाद मानना गलत होगा और मुसलामानों को भी यह समझना होगा की जिन्होंने पुस्तकालय जलाये, मंदिर-मस्जिद गिराए, लोगों को रक्तरंजित किया, वो उनके पुरखे कैसे हो सकते हैं। वह निश्चित ही धर्मावलम्बियों के लिए यह बहस ज़रूर छेड़ते कि हिन्दू-मुस्लिम साझेदारी कैसे विभिन्न पीड़ायें मिटा सकती है।

लोहिया के विचार अपने समय से आगे थे। लोहिया का एक ही पाप था: आज़ादी के बाद पैदा “भोगवाद” और दिशाहीनता के लिए देश को सचेत करते हुए उन्होंने नेहरू के नेतृत्व का खुलकर विरोध किया था जिससे उन्हें बहुत अर्धसत्यों का शिकार होना पड़ा। जैसे आजकल फेक न्यूज़ या ट्रोलिंग के द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है।

आज लोहिया के विचारों का उल्लेख करने वाले नेता हर दल में शामिल है लेकिन उन्हें यह तय करना होगा कि वोट बैंक के लिए लोहिया के विचारों को गिरवी रखना कितना सही है और क्या वो नेता जो उन्हें अपना गुरु मानते हैं, वोट-फावड़ा-जेल के ज़रिये उन मूल्यों पर अडिग रहेंगे जो उनके विचार-गुरु ने 5 दशक पहले जिया था।

जैसा लोहिया ने कहा था कि लोग मेरी सुनेंगे ज़रूर, लेकिन मेरे मर जाने के बाद, और इसीलिए उनके विचार समकालीन राजनीति के लिए बहुत ज़रूरी और प्रासंगिक हैं और आगे भी रहेंगे।


Monday, March 26, 2018

ये दलितों की बस्ती है...


बोतल महँगी है तो क्या हुआ,
थैली खूब सस्ती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

1.यहाँ जन्मते हर बालक को,
पकड़ा देते हैं झाडू।
वो बेटा, अबे, साले,
परे हट, कहते हैं लालू कालू
गोविंदा और मिथुन बन कर,
खोद रहे हैं नाली।
दूजा काम इन्हें ना भाता
इसी काम में मस्ती है।।
ये दलितो की बस्ती है ।

2.सूअर घूमते घर आंगन में,
झबरा कुत्ता घर द्वारे
वह भी पीता वह भी पीती,
पीकर डमरू बाजे
भूत उतारें रातभर,
बस रात ऐसे ही कटती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

3.ब्रह्मा विष्णु इनके घर में,
कदम कदम पर जय श्रीराम।
रात जगाते शेरोंवाली की......
करते कथा सत्यनाराण..।।
पुरखों को जिसने मारा
उसकी ही कैसिट बजती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

4.यहाँ बरात मैं बलि चढ़ाते,
मुर्गा घेंटा और बकरा
बेटी का जब नेग करें,
तो माल पकाते देग भरा
जो जितने ज्यादा देग बनाये
उसकी उतनी हस्ती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

5.तू चूहड़ा और मैं चमार हूँ,
ये खटीक और वो कोली।
एक तो हम कभी बन ना पाये,
बन गई जगह जगह टोली।।
अपना मुक्तिदाता को भूले,
गैरों की झांकी सजती है।
ये दलितो की बस्ती है ।।

6.हर महीने वृंदावन दौड़े,
माता वैष्णो छ: छ: बार।
गुडगाँवा की जात लगाता,
सोमनाथ को अब तैयार।।
बेटी इसकी चार साल से,
दसवीं में ही पढ़ती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

7.बेटा बजरंगी दल में है,
बाप बना भगवा धारी भैया हिन्दू
परिषद में है, बीजेपी में महतारी।
मंदिर मस्जिद में गोली,
इनके कंधे चलती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

8.आर्य समाजी इसी बस्ती में,
वेदों का प्रचार करें
लाल चुनरिया ओढ़े,
पंथी वर्णभेद पर बात करें
चुप्पी साधे वर्णभेद पर,
आधी सदी गुजरती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

9.शुक्रवार को चौंसर बढ़ती,
सोमवार को मुख लहरी।
विलियम पीती मंगलवार को,
शनिवार को नित जह़री।।
नौ दुर्गे में इसी बस्ती में,
घर घर ढोलक बजती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

10.नकली बौद्धों की भी सुन लो,
कथनी करनी में अंतर।
बात करें बौद्ध धम्म की,
घर में पढ़ें वेद मंतर।।
बाबा साहेब  की तस्वीर लगाते,
इनकी मैया मरती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

11.औरों के त्यौहार मनाकर,
व्यर्थ खुशी मनाते हैं।
हत्यारों को ईश मानकर,
गीत उन्हीं के गाते है।।
चौदह अप्रैल को बाबा साहेब की जयंती,
याद ना इनको रहती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

12.डोरीलाल इसी बस्ती का,
कोटे से अफसर बन बैठा।
उसको इनकी क्या पड़ी अब,
वह दूजों में जा बैठा।।
बेटा पढ़ लिखकर शर्माजी,
बेटी बनी अवस्थी है।
ये दलितो की बस्ती है ।

13.भूल गए अपने पुरखों को,
महामही इन्हें याद नहीं।
अम्बेडकर बिरसा बुद्ध,
वीर ऊदल की याद नहीं।
झलकारी को ये क्या जानें,
इनकी वह क्या लगती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

मैं भी लिखना सीख गया हूँ,
गीत कहानी और कविता।
इनके दु:ख दर्द की बातें, मैं
भी भला कहाँ लिखता था।।
कैसे समझाऊँ अपने लोगों को मैं,
चिंता यही खटकती है
ये दलितों की बस्ती है।।

Monday, March 12, 2018

मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया (पूर्व राज्यसभा सांसद) वरिष्ठ सदस्य काका कालेकर आयोग

"शुद्र राज्य अवश्य आएगा मेरे जीवनकाल में आएगा"-
इस विचार के जनक का आज जन्मदिन है। इस अवसर पर हम उन्हें स्मरण एवं नमन करते हैं।
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया
(13.3.1903 -18.9.1995)
जन्म एवं बाल्यकाल
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया जी का जन्म ग्राम खरिका (वर्तमान नाम तेलीबाग) लखनऊ में हुआ। इनके पिता का नाम मा.पराग राम चौरसिया था।
चौरसिया जी का बाल्यकाल, गुलामी और सामाजिक परतंत्रता का युग था जिसमें बहुजन का बच्चा अपने माता-पिता के साथ विद्यालय में नाम लिखाने के लिए जाता था तो उसके माता-पिता के सामने ही तिरस्कृत कर जाती और जातीय धंधे की याद दिलाकर वापस घर लौटा दिया जाता था। बहुजन के लिए जातीय धंधे के सिवाय पढ़ना लिखना कतई मना था। शासन और शिक्षा की बागडोर आर्य-ब्राह्मणों के हाथ में थी।
वह माता पिता धन्य है जिन्होंने सामाजिक भेदभाव, जाति ग्रस्तता और अमानवीय छुआछूत के युग का मुकाबला किया और वीर बालक चौरसिया जी को पढ़ाने लिखाने का साहस जुटाया।
मुफ्त कानूनी सहायता
गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य रहा। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम जस्टिस एच एन भगवती (जज सुप्रीम कोर्ट) को प्रभावित किया और जस्टिस भगवती जी के चेंबर में फ्री कानूनी सहायता देने वाली बैठकें की। चौरसिया जी के सतत प्रयासों से ही अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया जिसमें अब गरीबों को नि:शुल्क और यथासंभव त्वरित न्याय दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था हो गई है। लोक अदालतें उसी विधि की एक कड़ी है। कानून और अदालत के क्षेत्र में गरीबों के हितार्थ चौरसिया जी की यह बहुत बड़ी देन है।
शिक्षा पर जोर
चौरसिया जी को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे। इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। शिक्षा को ही राष्ट्रीयता का आधार बनाना चाहते थे।
दृढ़ निश्चय
चौरसिया जी अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही मरुंगा। शूद्र राज अवश्य आएगा और मेरे जीवनकाल में ही आएगा।
लोहिया से विवाद
डॉ राम मनोहर लोहिया ने समस्त पिछड़े वर्गों को 60% की सीमा तक ही प्रतिनिधित्व दिए जाने का निश्चय किया और समस्त नारी समाज को भी इसमें जोड़ लिया। चौरसिया जी और साथियों का कहना था कि ऊंची जाति की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी होती हैं। अगर महिलाओं का % निर्धारित नहीं किया जाएगा तो 60% के आरक्षण का अधिकांश भाग ऊंची जातियों के हक में ही चला जाएगा। लोहिया जी सहमत नहीं हुए और नारा दिया-
"संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ"
लोहिया जी की साठ वाली बात भी "सांठ-गांठ" में तब्दील हो गई। चूँकि लोहिया गांधीवादी नेता थे। आप जानते हो गांधीवादी, ब्राह्मणवादी होता है और ब्राह्मणवादी सदैव बेईमान होता है। ब्राह्मणवादी बहुजन के हक को मारकर अपना पेट पालने वाला शक्तिशाली परजीवी होता है। आज भी परजीवियों के लिए समस्त पिछड़े वर्गों की 6783 जातियों के लोग सॉफ्ट टारगेट पर रहते हैं। ये उसका हक मारने और पीड़ित करने में देर नहीं लगाते।
इस तरह अपने जीवन काल में लोहिया ने लाखों-करोड़ों पिछड़े वर्ग के लोगों को खूबसूरत ढंग से बेवकूफ बनाया और उनकी आंखों में समाजवाद के नाम पर लाल मिर्च झोंकी और बहुजन आंदोलनों को कमजोर करते रहे। इसके अलावा समय-समय पर उनका हक मारकर ब्राह्मणवाद को परोसा और बढ़ावा दिया।

साइमन कमीशन
भारत में संवैधानिक सुधारों के द्वारा वंचित वर्गों को उनका हक और अधिकार देने के पक्ष में आया था। परंतु उच्च वर्णिय लोगों को बहुजन पर शासन करने की आजादी खिसकती हुई नजर आने लगी। इसलिए उन्होंने जोरदार विरोध किया।
यह संवैधानिक व्यवस्था की शुरुआत थी। उपरोक्त विधान के तहत साइमन कमीशन ने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा शुरू कर दिया। और वंचितों को शासन सत्ता में प्रतिनिधित्व देने के लिए भारतीय सांविधिक आयोग ने 5.1.1928 में लखनऊ का दौरा किया। हजारों की संख्या में भीड़ में एकत्र होकर विभिन्न संगठनों पार्टियों दबाई-सताई वंचित समाज की विभिन्न जातियों आदि द्वारा साइमन सर को ज्ञापन सौंपे गए। 
वंचित समाज की विभिन्न जातियों संगठनों द्वारा दिए गए ज्ञापन तथा बतौर गवाहों की हिंदी में व्यक्तिगत सुनवाई को अंग्रेजी में अनुवाद कर साइमन सर को बताना, व लिखकर देना चुनौतीपूर्ण कार्य कर उन्होंने बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। कार्यक्रम के अंत में स्वयं डिप्रेस्ड क्लासेज की ओर से अपना क्रांतिकारी बयान कलमबंद करवाया।
अन्य पिछड़ी जातियों के हक और अधिकारों की रक्षा
लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अछूतों के अलावा शूद्र जातियों को प्रतिनिधित्व (तथाकथित आरक्षण) देने के लिए बाबा साहब को साफ मना कर दिया और कहा कि हमें आरक्षण की क्या जरूरत। फिर भी डॉ.अंबेडकर ने शूद्र जातियों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग बना दिया तथा उनके लिए संविधान में प्रतिनिधित्व पाने के हक की व्यवस्था कर दी।
प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29.1.1953 में भारत के राष्ट्रपति जी द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को परिभाषित करने, उनके सामाजिक आर्थिक राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु एक आयोग गठित किया गया। चौरसिया जी आयोग के महत्वपूर्ण गैर कांग्रेसी सदस्य मनोनीत किए गए। इस संबंध में 30.10.1953 को वह डॉ.अंबेडकर के विचार विमर्श हेतु दिल्ली गए थे। आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर पूना के निवासी एक ब्राह्मण थे। उन्होंने चौरसिया जी के द्वारा बनाई गई रिपोर्ट अन्य पिछड़ी जातियों के पक्ष में ही दी जिसे देखकर नेहरू आग बबूला हो उठे थे। नेहरू ने काका कालेलकर से ना चाहते हुए भी रिपोर्ट खारिज करने की सिफारिश लगवाई। नेहरू ने 16 वर्ष तक भारत के प्रधानमंत्री के पद पर रहकर उच्च वर्णों की उन्नति और मूलनिवासी बहुजनों की अवनति के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। न्यायपालिका में भी अपने समर्थक आर्य-ब्राह्मण न्यायाधीशों की नियुक्ति करवाते रहें ताकि भविष्य में मूलनिवासियों को कोई हक और अधिकार मिलने के पक्ष में कभी कोई निर्णय न होने पाए।
काका कालेलकर के द्वारा दिए गए विरोधाभासी पत्र ने चौरसिया जी एवं डॉ अंबेडकर जी के जीवन भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। यह अन्याय न केवल उनके साथ बल्कि करोड़ों पिछड़ों के साथ हुआ और उन जातियों को सदैव आर्यों की दासता का जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया गया।
इस सब के बावजूद चौरसिया जी चुप और शांत नहीं बैठे। अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों को लामबंद करने के लिए देशभर के प्रायः सभी राज्यों में अपना संघर्ष और आंदोलन तेज कर दिया। इसका लाभ यह हुआ कि पिछड़े वर्ग की विभिन्न जातियों के लोग चुनकर संसद में आने लगे और उनके अंदर दासता के विरुद्ध जागरुकता एवं विद्रोह का संचार पनपने लगा। चूँकि संवैधानिक हक पाने के लिए संसद में बहुमत की आवश्यकता है परंतु संसद में बहुमत ना होने से यह मामला ब्राह्मणवाद की चोट और धोखा खाकर संसद में लटक रहा है। इन जातियों की सांसो की डूबती हुई धड़कनों को बचाने के लिए बहुत विलंब से वर्ष 1989-90 में मा. विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में ऑक्सीजन तो दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्सीजन की पूरी मात्रा देने से रोक लगा दी।

मान्यवर कांशीराम जी से मुलाकात
दोनों की परस्पर समान विचारधारा होने के कारण एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने लगे। काशीराम जी (बामसेफ डीएस4 BSP के संस्थापक) एक जुझारू व्यक्ति थे। उस समय तक पिछड़े वर्ग के पास ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो इस समाज की दिशा एवं दशा को तय करती। प्रिंट मीडिया पर केवल आर्यों का ही एकछत्र अधिकार था। इस समय तक बहुजन समाज में अनेक विचारक और चिंतक हुए परंतु अपनी अपनी जाति तक ही सीमित रहे और अपनी जाति की ही डोर पकड़कर कटी पतंग की तरह अधोगति को प्राप्त हुए।
डी के खापर्डे, दीना भाना एवं काशीराम जी ने इस बुराई को पहचाना और एक ऐसे संगठन की रूपरेखा तैयार करने में लग गए जो समस्त पिछड़े वर्ग (SC ST OBC MC) के लिए हो। उन्हें एक झंडे के नीचे रखकर उनके हितों की रक्षा के लिए एक नए जोश-खरोश के साथ संघर्ष शुरू किया। चौरसिया जी ने तन मन धन से सहयोग देकर इस संगठन की हौसला अफजाई की।
राज्य में सत्ता परिवर्तन के समय उन्होंने शुगर की बीमारी के बावजूद खुशी के दिन मिठाई खाई थी और कहा था कि मेरा संघर्ष और जीवन सफल हुआ।
परिनिर्वाण दिवस
चौरसिया जी 18.9.1995 को यशकायी होने के बाद एक बहुत बड़ा अनसुलझा प्रश्न छोड़ गए हैं जिसको वह अपने जीवनकाल में पूरा नहीं कर पाए। वह कहा करते थे कि पिछड़ा(SC ST OBC) और अल्पसंख्यकों (MC) की जातियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर न्यायालयों, सरकारी नौकरियों आदि में प्रतिनिधित्व कब मिलेगा ?

Thursday, February 22, 2018

बढ़ते जन असन्तोष से तिलमिलाये भगवाधारी


विकास का मुखौटा धूल में, नफ़रत से सराबोर ख़ूनी चेहरा सबके सामने -

जैसे-जैसे केन्द्र की राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार अपना कार्यकाल पूरा होने की ओर बढ़ रही है, वैसे-वैसे अगले लोकसभा चुनाव में किसी अनहोनी के होने की आशंका से भारतीय जनता पार्टी और उसके भगवाधारी कुटुम्ब की नींद हराम होती जा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव और राजस्थान उपचुनाव में पार्टी के ख़राब प्रदर्शन के मद्देनज़र उसके वैचारिक धर्मगुरुओं को भविष्य के ग्रह-नक्षत्र अच्छे नहीं दिखायी दे रहे हैं। यही वजह है कि समूचा भगवा कुटुम्ब अगले साल मतदान की फ़सल काटने के लिए ख़ून की बारिश करवाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है। अर्थव्यवस्था में छायी मन्दी और बढ़ती बेरोज़गारी के काले बादल दिन-ब-दिन घने होते जा रहे हैं और भगवाधारियों के दरबारी अर्थशास्त्री भी एक साल के भीतर उम्मीद की कोई किरण नहीं देख पा रहे हैं। यही वजह है‍ कि सट्टा बाज़ार के कारोबारी सूचकांक में भले ही गिरावट देखने को मिल रही हो, लेकिन नफ़रत के कारोबारी सूचकांक में ज़बरदस्त उछाल देखने में आ रहा है। अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के ख़िलाफ़ विषवमन की अपनी गौरवशाली (कु)संस्कृति के नित-नये नमूने पेश हो रहे हैं। अन्धराष्ट्रवाद की दुकान भी ख़ूब चल रही है। पाकिस्तान और कश्मीर फिर से सुर्खियों में लौट आये हैं। नये साल की शुरुआती दिनों में ही संघ परिवार की वानर सेना के उपद्रवी उन्माद से आने वाले दिनों में उनकी आक्रामकता बढ़ने के संकेत स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं।

अच्छे दिन लाने और हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ पैदा करने के जुमलेबाजी भरे वायदे करके प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर पहुँचे नरेन्द्र मोदी अब अपने फिसड्डीपन का ठीकरा कांग्रेस की पिछली सरकारों पर मढ़कर लोगों का गुस्सा कांग्रेस की ओर मोड़ने की हास्यास्पद कोशिशें कर रहे हैं। प्रति वर्ष 2 करोड़ नौकरियाँ तो दूर मोदी सरकार पिछले 5 सालों से ख़ाली पड़े लगभग 5 लाख पदों को ख़त्म करने की क़वायद में लगी है। वर्तमान सरकार के पौने चार साल के कार्यकाल में लगभग 5 लाख नयी नौकरियाँ ही जोड़ी गयी हैं। नयी नौकरियाँ पैदा करना तो दूर इस सरकार के कार्यकाल में रोज़गार सृजन की दर लगातार गिरती गयी है। कुल नौकरियों की संख्या भी साल-दर-साल कम होती जा रही है। वर्ष 2014 में मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में कुल 48 करोड़ नौकरियाँ थीं जो 2016 में गिरकर 46.7 करोड़ रह गयीं। बेशर्मी की हद तो तब हो गयी जब देश का प्रधानमन्त्री पकौड़े बेचने को भी रोज़गार का सृजन बताने लगा और सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष इस शर्मनाक बयान के पक्ष में संसद में कठदलीली करता नज़र आया।

टि्वटर पर एकतरफ़़ा संवाद करने में माहिर प्रधानमन्त्री को पौने चार साल में एक प्रेस काॅन्फ्रेंस के ज़रिये जनता से मुख़ातिब होने तक का साहस नहीं हुआ। कुछ दरबारी पत्रकारों को इण्टरव्यू देकर अपने फिसड्डीपन पर पर्दा डालने की हास्यास्पद कोशिश करके नरेन्द्र मोदी ने अपनी छीछालेदर ही करवायी। संसद में अपनी सरकार की हर मोर्चे पर विफलता को ढँकने के लिए कांग्रेस और नेहरू तक को दोषी ठहराने की घिसी-पिटी क़वायद से लोग अब ऊबते जा रहे हैं। जहाँ एक ओर आम जनता की ज़ि‍न्दगी की मुश्किलें  बढ़ती जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर धनपतियों की सम्पत्ति में इज़ाफ़ा होने की रफ़्तार भी दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जा रही है। आर्थिक असमानता की खाई के चौड़ा होने पर साम्राज्यवादी थिंकटैंक भी जमकर घड़ि‍याली आँसू बहा रहे हैं। ऑक्सफ़ैम की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2017 में देश में उत्पादित कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष के 1 प्रतिशत धनपशुओं के हिस्से में चला गया। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट यह आशंका जता रही है कि 2019 तक देश की सक्रिय कार्यशील आबादी का 77 प्रतिशत असुरक्षित रोज़गार की श्रेणी में आ जायेगा। ग़ौरतलब है कि इस रिपोर्ट में बेरोज़गारों और तथाकथित स्वरोज़गार में लगी करोड़ों की आबादी नहीं शामिल है। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में पसरी मन्दी के काले बादल छँटने की सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिखायी दे रही है। विकास की गर्जना अब शान्त हो चुकी है और साम्प्रदायिक विद्वेष व अन्धराष्ट्रवाद का उन्मादी शोरगुल देश-भर में फैल रहा है।

जहाँ एक ओर नरेन्द्र मोदी विकास की दहाड़ पर लगाम लगाकर अपने फिसड्डीपन का ठीकरा अतीत की सरकारों पर मढ़ने में मशगूल हैं, वहीं दूसरी ओर उनके संघी कुटुम्ब के उपद्रवी बिरादर सड़कों पर आतंक से लेकर टीवी स्टूडियो और सोशल मीडिया, व्हाट्सऐप जैसे माध्यमों से अल्पसंख्यकों, दलितों और स्त्रियों के विरुद्ध निकृष्टतम स्तर के घृणि‍त विचारों का विषवमन करते दिख रहे हैं। आतंक और नफ़रत के इस माहौल की गवाही ख़ुद गृह मन्त्रालय के आँकड़े ही दे रहे हैं। लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गृह राज्य मन्त्री हंसराज अहिर ने बताया कि अकेले वर्ष 2017 में देश में कुल 822 साम्प्रदायिक वारदातें हुईं जिनमें 111 लोग मारे गये और 2384 लोग ज़ख़्मी हुए। वर्ष 2016 में साम्प्रदायिक हिंसा की 703 घटनाएँ घटी थीं जिनमें 86 लोग मारे गये थे और 2321 लोग घायल हुए थे जबकि 2015 में साम्प्रदायिक वारदातों की संख्या 751 थी, जिनमें 97 लोग मारे गये और 2264 लोग घायल हुए थे। वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 195 साम्प्रदायिक वारदातें हुईं जिनमें 44 लोग मारे गये और 542 लोग घायल हुए। उत्तर प्रदेश इस समय योगी ब्राण्ड हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बना हुआ है। इस प्रयोगशाला में इस साल का पहला प्रयोग हिन्दुत्ववादी उपद्रवियों ने कासगंज में गणतन्त्र दिवस पर अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में तिरंगा यात्रा की आड़ में मुस्लिम आबादी को उकसाने की घिनौनी क़रतूत के रूप में किया जिससे उपजी साम्प्रदायिक हिंसा में चन्दन गुप्ता नामक एक शख़्स की मौत हो गयी जिसके बाद पूरे क़स्बे में मुसलमानों की दुकानों और घरों को चुन-चुनकर जलाया गया। संघी दंगाइयों को अच्छी तरह से पता है कि उनकी उकसावेबाजी से इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों की मज़हबी ठेकेदारी भी चल निकलती है जिसका लाभ अन्तत: हिन्दुत्ववादियों को ही होता है। कासगंज के अलावा इसका एक नमूना दिल्ली के रघुबीर नगर में अंकित सक्सेना नामक युवक की ‘ऑनर किलिंग’ के रूप में सामने आया जिसकी मुस्लिम प्रेमिका के परिजनों ने निर्मम हत्या कर दी। हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टरपन्थी ठेकेदार ऊपरी तौर पर एक-दूसरे के ख़ि‍लाफ़ कितनी भी गर्मागर्म बातें करें, असलियत तो यह है कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की राजनीति चमकती है तो दूसरे की भी बाँछें खिल जाती हैं क्योंकि उसको भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए आग मिल जाती है।

सड़कों पर आतंक के अतिरिक्त भगवा फ़ासिस्टों के प्रवक्ताओं ने टीवी स्टूडियो में ज़हरीले बयान देकर देश के साम्प्रदायिक परिवेश को प्रदूषित करने की घिनौनी रणनीति के अमल में तेज़ी ला दी है। राकेश सिन्हा, विनय कटियार, ज्ञानदेव आहूजा जैसे संघी बड़बोलों ने हाल के दिनों में अल्पसंख्यकों के ख़ि‍लाफ़ खुली धमकी भरे ज़हरीले बयान दिये हैं जिनका मक़सद समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में तेज़ी लाना है ताकि रोज़ी-रोटी के ज्वलन्त मुद्दे दब जायें। इसके अलावा राम मन्दिर की आग को एक बार फिर भड़काने के लिए संघ परिवार के अनुषंगिक संगठन एक रामराज्य रथ यात्रा चला रहे हैं जो साम्प्रदायिक धुँआ छोड़ती हुई 6 राज्यों से होकर गुज़रेगी। साम्प्रदायिक नफ़रत के अलावा जातिगत तनाव बढ़ने के संकेत भी साफ़ नज़र आ रहे हैं जिसका नतीजा भीमा कोरेगाँव की घटना और हाल ही में इलाहाबाद में एक दलित युवक की बर्बर हत्या के रूप में सामने आया। पद्मावत फ़िल्म पर प्रतिबन्ध लगाने के पीछे की राजनीति भी जातिगत दरारों को चौड़ा करने की घृणित कोशिशों का ही विस्तार थी। निक्करधारियों द्वारा महिलाओं के ख़ि‍लाफ़ विषवमन और वैलेण्टाइन्स डे के विरोध के नाम पर प्रेम की आज़ादी पर हमले को भी समाज में दक़ि‍यानूसी मानसिकता को बढ़ावा देकर अपने वोटबैंक को सुदृढ़ करने की कोशिशों की निरन्तरता में ही देखा जाना चाहिए।

पूरे समाज को साम्प्रदायिक नफ़रत की आग में झोंकने के अतिरिक्त फ़ासिस्टों की दूसरी रणनीति अन्धराष्ट्रवाद की हवा चलाने की है। पाकिस्तान और कश्मीर के मसले इन दोनों रणनीतियों के बीच सेतु का काम करते हैं। हाल ही में दक्षिण कश्मीर के शोपियाँ में आर्मी जवानों की फ़ायरिंग में तीन नागरिकों की मौत को जायज़ ठहराने और गढ़वाल राइफ़ल्स के मेजर आदित्य कुमार पर की गयी एफ़आईआर को रद्द करवाने के लिए एक मुहिम चलायी गयी। मामले को सर्वोच्च न्यायालय ले जाया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी भारतीय राज्य के प्रति पक्षधरता दिखाते हुए एफ़आईआर पर स्टे लगा दिया। इसके अलावा हाल में जम्मू और कश्मीर में सीआरपीएफ़ कैम्पों पर हुए आतंकी हमलों के लिए रोहिंग्या मुसलमानों को जि़म्मेदार ठहराते हुए संघ परिवार के लग्गू-भग्गुओं ने रोहिंग्या मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के लिए शुरू की गयी मुहिम तेज़ कर दी है। हाल में जम्मू में सुजवान स्थित आर्मी कैम्प पर हमले के बाद भाजपा नेता कविन्दर गुप्ता के नेतृत्व में निक्करधारियों ने जम्मू में रोहिंग्या मुसलमानों के शरणार्थी शिविरों के आसपास तनाव का माहौल बनाया जिससे संघ परिवार की रणनीति की झलक मिलती है।

उपरोक्त घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों में अपना जनाधार सुदृढ़ करने और आगामी लोकसभा चुनावों से पहले वर्तमान सरकार के ख़ि‍लाफ़ बढ़ते जन असन्तोष की दिशा मोड़ने के लिए हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट किसी भी हद तक गुज़र सकते हैं। सत्ता हाथ से खोने के भय से वे और भी अधिक आक्रामक मुद्रा में आकर किसी बड़े षड्यन्त्र को अंजाम देने से भी नहीं चूकेंगे। ऐसे में उनकी घिनौनी साज़ि‍शों का पर्दाफ़ाश करना पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। साम्प्रदायिक नफ़रत और अन्धराष्ट्रवाद की आग में देश को झोंकने की हिन्दुत्ववादी साज़ि‍शों को रचनात्मक तरीक़े से जनता के सामने उजागर करने के अलावा आज सकारात्मक तौर पर रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर आन्दोलन संगठित करने की सख़्त ज़रूरत है। इस प्रक्रिया में जनता वर्तमान पूँजीवादी ढाँचे के सीमान्तों को भी समझ सकेगी और इस ढाँचे को आमूलचूल तौर पर बदलकर बराबरी, आज़ादी और इंसाफ़ पर आधारित नये सामाजिक ढाँचे की नींव तैयार करने की प्रक्रिया भी तेज़ होगी। यानी फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन को चुनावी गठबन्धन तक सीमित करने की बजाय उसे पूँजीवाद-विरोधी व्यापक आन्दोलन से जोड़ना बेहद ज़रूरी है।
___________________________________