"शुद्र राज्य अवश्य आएगा मेरे जीवनकाल में आएगा"-
इस विचार के जनक का आज जन्मदिन है। इस अवसर पर हम उन्हें स्मरण एवं नमन करते हैं।
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया
(13.3.1903 -18.9.1995)
जन्म एवं बाल्यकाल
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया जी का जन्म ग्राम खरिका (वर्तमान नाम तेलीबाग) लखनऊ में हुआ। इनके पिता का नाम मा.पराग राम चौरसिया था।
चौरसिया जी का बाल्यकाल, गुलामी और सामाजिक परतंत्रता का युग था जिसमें बहुजन का बच्चा अपने माता-पिता के साथ विद्यालय में नाम लिखाने के लिए जाता था तो उसके माता-पिता के सामने ही तिरस्कृत कर जाती और जातीय धंधे की याद दिलाकर वापस घर लौटा दिया जाता था। बहुजन के लिए जातीय धंधे के सिवाय पढ़ना लिखना कतई मना था। शासन और शिक्षा की बागडोर आर्य-ब्राह्मणों के हाथ में थी।
वह माता पिता धन्य है जिन्होंने सामाजिक भेदभाव, जाति ग्रस्तता और अमानवीय छुआछूत के युग का मुकाबला किया और वीर बालक चौरसिया जी को पढ़ाने लिखाने का साहस जुटाया।
मुफ्त कानूनी सहायता
गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य रहा। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम जस्टिस एच एन भगवती (जज सुप्रीम कोर्ट) को प्रभावित किया और जस्टिस भगवती जी के चेंबर में फ्री कानूनी सहायता देने वाली बैठकें की। चौरसिया जी के सतत प्रयासों से ही अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया जिसमें अब गरीबों को नि:शुल्क और यथासंभव त्वरित न्याय दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था हो गई है। लोक अदालतें उसी विधि की एक कड़ी है। कानून और अदालत के क्षेत्र में गरीबों के हितार्थ चौरसिया जी की यह बहुत बड़ी देन है।
शिक्षा पर जोर
चौरसिया जी को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे। इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। शिक्षा को ही राष्ट्रीयता का आधार बनाना चाहते थे।
दृढ़ निश्चय
चौरसिया जी अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही मरुंगा। शूद्र राज अवश्य आएगा और मेरे जीवनकाल में ही आएगा।
लोहिया से विवाद
डॉ राम मनोहर लोहिया ने समस्त पिछड़े वर्गों को 60% की सीमा तक ही प्रतिनिधित्व दिए जाने का निश्चय किया और समस्त नारी समाज को भी इसमें जोड़ लिया। चौरसिया जी और साथियों का कहना था कि ऊंची जाति की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी होती हैं। अगर महिलाओं का % निर्धारित नहीं किया जाएगा तो 60% के आरक्षण का अधिकांश भाग ऊंची जातियों के हक में ही चला जाएगा। लोहिया जी सहमत नहीं हुए और नारा दिया-
"संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ"
लोहिया जी की साठ वाली बात भी "सांठ-गांठ" में तब्दील हो गई। चूँकि लोहिया गांधीवादी नेता थे। आप जानते हो गांधीवादी, ब्राह्मणवादी होता है और ब्राह्मणवादी सदैव बेईमान होता है। ब्राह्मणवादी बहुजन के हक को मारकर अपना पेट पालने वाला शक्तिशाली परजीवी होता है। आज भी परजीवियों के लिए समस्त पिछड़े वर्गों की 6783 जातियों के लोग सॉफ्ट टारगेट पर रहते हैं। ये उसका हक मारने और पीड़ित करने में देर नहीं लगाते।
इस तरह अपने जीवन काल में लोहिया ने लाखों-करोड़ों पिछड़े वर्ग के लोगों को खूबसूरत ढंग से बेवकूफ बनाया और उनकी आंखों में समाजवाद के नाम पर लाल मिर्च झोंकी और बहुजन आंदोलनों को कमजोर करते रहे। इसके अलावा समय-समय पर उनका हक मारकर ब्राह्मणवाद को परोसा और बढ़ावा दिया।
इस विचार के जनक का आज जन्मदिन है। इस अवसर पर हम उन्हें स्मरण एवं नमन करते हैं।
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया
(13.3.1903 -18.9.1995)
जन्म एवं बाल्यकाल
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया जी का जन्म ग्राम खरिका (वर्तमान नाम तेलीबाग) लखनऊ में हुआ। इनके पिता का नाम मा.पराग राम चौरसिया था।
चौरसिया जी का बाल्यकाल, गुलामी और सामाजिक परतंत्रता का युग था जिसमें बहुजन का बच्चा अपने माता-पिता के साथ विद्यालय में नाम लिखाने के लिए जाता था तो उसके माता-पिता के सामने ही तिरस्कृत कर जाती और जातीय धंधे की याद दिलाकर वापस घर लौटा दिया जाता था। बहुजन के लिए जातीय धंधे के सिवाय पढ़ना लिखना कतई मना था। शासन और शिक्षा की बागडोर आर्य-ब्राह्मणों के हाथ में थी।
वह माता पिता धन्य है जिन्होंने सामाजिक भेदभाव, जाति ग्रस्तता और अमानवीय छुआछूत के युग का मुकाबला किया और वीर बालक चौरसिया जी को पढ़ाने लिखाने का साहस जुटाया।
मुफ्त कानूनी सहायता
गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य रहा। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम जस्टिस एच एन भगवती (जज सुप्रीम कोर्ट) को प्रभावित किया और जस्टिस भगवती जी के चेंबर में फ्री कानूनी सहायता देने वाली बैठकें की। चौरसिया जी के सतत प्रयासों से ही अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया जिसमें अब गरीबों को नि:शुल्क और यथासंभव त्वरित न्याय दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था हो गई है। लोक अदालतें उसी विधि की एक कड़ी है। कानून और अदालत के क्षेत्र में गरीबों के हितार्थ चौरसिया जी की यह बहुत बड़ी देन है।
शिक्षा पर जोर
चौरसिया जी को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे। इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। शिक्षा को ही राष्ट्रीयता का आधार बनाना चाहते थे।
दृढ़ निश्चय
चौरसिया जी अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही मरुंगा। शूद्र राज अवश्य आएगा और मेरे जीवनकाल में ही आएगा।
लोहिया से विवाद
डॉ राम मनोहर लोहिया ने समस्त पिछड़े वर्गों को 60% की सीमा तक ही प्रतिनिधित्व दिए जाने का निश्चय किया और समस्त नारी समाज को भी इसमें जोड़ लिया। चौरसिया जी और साथियों का कहना था कि ऊंची जाति की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी होती हैं। अगर महिलाओं का % निर्धारित नहीं किया जाएगा तो 60% के आरक्षण का अधिकांश भाग ऊंची जातियों के हक में ही चला जाएगा। लोहिया जी सहमत नहीं हुए और नारा दिया-
"संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ"
लोहिया जी की साठ वाली बात भी "सांठ-गांठ" में तब्दील हो गई। चूँकि लोहिया गांधीवादी नेता थे। आप जानते हो गांधीवादी, ब्राह्मणवादी होता है और ब्राह्मणवादी सदैव बेईमान होता है। ब्राह्मणवादी बहुजन के हक को मारकर अपना पेट पालने वाला शक्तिशाली परजीवी होता है। आज भी परजीवियों के लिए समस्त पिछड़े वर्गों की 6783 जातियों के लोग सॉफ्ट टारगेट पर रहते हैं। ये उसका हक मारने और पीड़ित करने में देर नहीं लगाते।
इस तरह अपने जीवन काल में लोहिया ने लाखों-करोड़ों पिछड़े वर्ग के लोगों को खूबसूरत ढंग से बेवकूफ बनाया और उनकी आंखों में समाजवाद के नाम पर लाल मिर्च झोंकी और बहुजन आंदोलनों को कमजोर करते रहे। इसके अलावा समय-समय पर उनका हक मारकर ब्राह्मणवाद को परोसा और बढ़ावा दिया।
साइमन कमीशन
भारत में संवैधानिक सुधारों के द्वारा वंचित वर्गों को उनका हक और अधिकार देने के पक्ष में आया था। परंतु उच्च वर्णिय लोगों को बहुजन पर शासन करने की आजादी खिसकती हुई नजर आने लगी। इसलिए उन्होंने जोरदार विरोध किया।
यह संवैधानिक व्यवस्था की शुरुआत थी। उपरोक्त विधान के तहत साइमन कमीशन ने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा शुरू कर दिया। और वंचितों को शासन सत्ता में प्रतिनिधित्व देने के लिए भारतीय सांविधिक आयोग ने 5.1.1928 में लखनऊ का दौरा किया। हजारों की संख्या में भीड़ में एकत्र होकर विभिन्न संगठनों पार्टियों दबाई-सताई वंचित समाज की विभिन्न जातियों आदि द्वारा साइमन सर को ज्ञापन सौंपे गए।
वंचित समाज की विभिन्न जातियों संगठनों द्वारा दिए गए ज्ञापन तथा बतौर गवाहों की हिंदी में व्यक्तिगत सुनवाई को अंग्रेजी में अनुवाद कर साइमन सर को बताना, व लिखकर देना चुनौतीपूर्ण कार्य कर उन्होंने बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। कार्यक्रम के अंत में स्वयं डिप्रेस्ड क्लासेज की ओर से अपना क्रांतिकारी बयान कलमबंद करवाया।
अन्य पिछड़ी जातियों के हक और अधिकारों की रक्षा
लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अछूतों के अलावा शूद्र जातियों को प्रतिनिधित्व (तथाकथित आरक्षण) देने के लिए बाबा साहब को साफ मना कर दिया और कहा कि हमें आरक्षण की क्या जरूरत। फिर भी डॉ.अंबेडकर ने शूद्र जातियों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग बना दिया तथा उनके लिए संविधान में प्रतिनिधित्व पाने के हक की व्यवस्था कर दी।
प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29.1.1953 में भारत के राष्ट्रपति जी द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को परिभाषित करने, उनके सामाजिक आर्थिक राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु एक आयोग गठित किया गया। चौरसिया जी आयोग के महत्वपूर्ण गैर कांग्रेसी सदस्य मनोनीत किए गए। इस संबंध में 30.10.1953 को वह डॉ.अंबेडकर के विचार विमर्श हेतु दिल्ली गए थे। आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर पूना के निवासी एक ब्राह्मण थे। उन्होंने चौरसिया जी के द्वारा बनाई गई रिपोर्ट अन्य पिछड़ी जातियों के पक्ष में ही दी जिसे देखकर नेहरू आग बबूला हो उठे थे। नेहरू ने काका कालेलकर से ना चाहते हुए भी रिपोर्ट खारिज करने की सिफारिश लगवाई। नेहरू ने 16 वर्ष तक भारत के प्रधानमंत्री के पद पर रहकर उच्च वर्णों की उन्नति और मूलनिवासी बहुजनों की अवनति के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। न्यायपालिका में भी अपने समर्थक आर्य-ब्राह्मण न्यायाधीशों की नियुक्ति करवाते रहें ताकि भविष्य में मूलनिवासियों को कोई हक और अधिकार मिलने के पक्ष में कभी कोई निर्णय न होने पाए।
काका कालेलकर के द्वारा दिए गए विरोधाभासी पत्र ने चौरसिया जी एवं डॉ अंबेडकर जी के जीवन भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। यह अन्याय न केवल उनके साथ बल्कि करोड़ों पिछड़ों के साथ हुआ और उन जातियों को सदैव आर्यों की दासता का जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया गया।
इस सब के बावजूद चौरसिया जी चुप और शांत नहीं बैठे। अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों को लामबंद करने के लिए देशभर के प्रायः सभी राज्यों में अपना संघर्ष और आंदोलन तेज कर दिया। इसका लाभ यह हुआ कि पिछड़े वर्ग की विभिन्न जातियों के लोग चुनकर संसद में आने लगे और उनके अंदर दासता के विरुद्ध जागरुकता एवं विद्रोह का संचार पनपने लगा। चूँकि संवैधानिक हक पाने के लिए संसद में बहुमत की आवश्यकता है परंतु संसद में बहुमत ना होने से यह मामला ब्राह्मणवाद की चोट और धोखा खाकर संसद में लटक रहा है। इन जातियों की सांसो की डूबती हुई धड़कनों को बचाने के लिए बहुत विलंब से वर्ष 1989-90 में मा. विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में ऑक्सीजन तो दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्सीजन की पूरी मात्रा देने से रोक लगा दी।
मान्यवर कांशीराम जी से मुलाकात
दोनों की परस्पर समान विचारधारा होने के कारण एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने लगे। काशीराम जी (बामसेफ डीएस4 BSP के संस्थापक) एक जुझारू व्यक्ति थे। उस समय तक पिछड़े वर्ग के पास ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो इस समाज की दिशा एवं दशा को तय करती। प्रिंट मीडिया पर केवल आर्यों का ही एकछत्र अधिकार था। इस समय तक बहुजन समाज में अनेक विचारक और चिंतक हुए परंतु अपनी अपनी जाति तक ही सीमित रहे और अपनी जाति की ही डोर पकड़कर कटी पतंग की तरह अधोगति को प्राप्त हुए।
डी के खापर्डे, दीना भाना एवं काशीराम जी ने इस बुराई को पहचाना और एक ऐसे संगठन की रूपरेखा तैयार करने में लग गए जो समस्त पिछड़े वर्ग (SC ST OBC MC) के लिए हो। उन्हें एक झंडे के नीचे रखकर उनके हितों की रक्षा के लिए एक नए जोश-खरोश के साथ संघर्ष शुरू किया। चौरसिया जी ने तन मन धन से सहयोग देकर इस संगठन की हौसला अफजाई की।
राज्य में सत्ता परिवर्तन के समय उन्होंने शुगर की बीमारी के बावजूद खुशी के दिन मिठाई खाई थी और कहा था कि मेरा संघर्ष और जीवन सफल हुआ।
परिनिर्वाण दिवस
चौरसिया जी 18.9.1995 को यशकायी होने के बाद एक बहुत बड़ा अनसुलझा प्रश्न छोड़ गए हैं जिसको वह अपने जीवनकाल में पूरा नहीं कर पाए। वह कहा करते थे कि पिछड़ा(SC ST OBC) और अल्पसंख्यकों (MC) की जातियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर न्यायालयों, सरकारी नौकरियों आदि में प्रतिनिधित्व कब मिलेगा ?
Atulya Loktantra (अतुल्य लोकतंत्र न्यूज़) – AL News
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