Monday, November 27, 2017

अगर तुम एक युवा हो

ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतों!
उन्‍हें कहने दो कि क्रांतियाँ मर गयीं
जिनका स्‍वर्ग है इसी व्‍यवस्‍था के भीतर
तुम्‍हें तो इस नर्क से बाहर
निकलने के लिए
बन्‍द दरवाजों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निजामें कोहना के खिलाफ।
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्‍याय, सच्‍चाई, स्‍वाभिमान
और सुन्‍दरता से भरी जिन्‍दगी
तो तुम्‍हें उठाना ही होगा
नये इंकलाब का परचम फिर से।
उन्‍हें करने दो 'इतिहास के अन्‍त'
और 'विचारधारा के अन्‍त' की अन्‍तहीन बकवास।
उन्‍हें पीने दो पेप्‍सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्‍सन की
उन्‍मादी धुनों पर।
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर जिन्‍दगी के गीत।
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रोशनी की बातें करो।
तुम बगावत की धुनें रचो।
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नये महाकाव्‍यात्‍मक नाटक की
तैयारी करो।
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचण्‍ड झंझावात बन जाओ।
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अगर तुम युवा हो

स्‍मृतियों से कहो
पत्‍थर के ताबूत से बाहर आने को ।
गिर जाने दो
पीले पड़ चुके पत्‍तों को,
उन्‍हें गिरना ही है ।
बिसुरो मत,
न ही ढिंढोरा पीटो
यदि दिल तुम्‍हारा सचमुच
प्‍यार से लबरेज़ है ।
तब कहो कि विद्रोह न्‍यायसंगत है
अन्‍याय के विरुद्ध ।
युद्ध को आमंत्रण दो
मुर्दा शान्ति और कायर-निठल्‍ले विमर्शों के विरुद्ध ।
चट्टान के नीचे दबी पीली घास
या जज्‍ब कर लिये गये आँसू के क़तरे की तरह
पिता के सपनों
और माँ की प्रतीक्षा को
और हाँ, कुछ टूटे-दरके रिश्‍तों और यादों को भी
रखना है साथ
जलते हुए समय की छाती पर यात्रा करते हुए
और तुम्‍हें इस सदी को
ज़ालिम नहीं होने देना है ।
रक्‍त के सागर तक फिर पहुँचना है तुम्‍हें
और उससे छीन लेना है वापस
मानवता का दीप्तिमान वैभव,
सच के आदिम पंखों की उड़ान,
न्‍याय की गरिमा
और भविष्‍य की कविता
अगर तुम युवा हो ।
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अगर तुम युवा हो

जहाँ स्‍पन्दित हो रहा है बसन्‍त
हिंस्र हेमन्‍त और सुनसान शिशिर में
वहाँ है तुम्‍हारी जगह
अगर तुम युवा हो!
जहाँ बज रही है भविष्‍य-सिम्‍फ़नी
जहाँ स्‍वप्‍न-खोजी यात्राएँ कर रहे हैं
जहाँ ढाली जा रही हैं आगत की साहसिक परियोजनाएँ,
स्‍मृतियाँ जहाँ ईंधन हैं,
लुहार की भाथी की कलेजे में भरी
बेचैन गर्म हवा जहाँ ज़ि‍न्‍दगी को रफ़्तार दे रही है,
वहाँ तुम्‍हें होना है
अगर तुम युवा हो!
जहाँ दर-बदर हो रही है ज़ि‍न्‍दगी,
जहाँ हत्‍या हो रही है जीवित शब्‍दों की
और आवाज़ों को कैद-तनहाई की
सजा सुनायी जा रही है,
जहाँ निर्वासित वनस्पितियाँ हैं
और काली तपती चट्टानें हैं,
वहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा है
अगर तुम युवा हो!
जहाँ संकल्‍पों के बैरिकेड खड़े हो रहे हैं
जहाँ समझ की बंकरें खुद रही हैं
जहाँ चुनौतियों के परचम लहराये जा रहे हैं
वहाँ तुम्‍हारी तैनाती है
अगर तुम युवा हो।
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अगर तुम युवा हो

चलना होगा एक बार फिर
बीहड़, कठिन, जोखिम भरी सुदूर यात्रा पर,
पहुँचना होगा उन ध्रुवान्‍तों तक
जहाँ प्रतीक्षा है हिमशैलों को
आतुर हृदय और सक्रिय विचारों के ताप की।
भरोसा करना होगा एक बार
विस्‍तृत और आश्‍चर्यजनक सागर पर।
उधर रहस्‍यमय जंगल के किनारे
निचाट मैदान के अँधेरे छोर पर
छिटक रही हैं जहाँ नीली चिंगारियाँ
वहाँ जल उठा था कभी कोई हृदय
राहों को रौशन करता हुआ।
उन राहों को ढूँढ निकालना होगा
और आगे ले जाना होगा
विद्रोह से प्रज्‍ज्‍वलित हृदय लिए हाथों में
सिर से ऊपर उठाये हुए,
पहुँचना होगा वहाँ तक
जहाँ समय टपकता रहता है
आकाश के अँधेरे से बूँद-बूँद
तड़ि‍त उजाला बन।
जहाँ नीली जादुई झील में
प्रतिपल काँपता रहता अरुण कमल एक,
वहाँ पहुँचने के लिए
अब महज अभिव्‍यक्ति के नहीं
विद्रोह के सारे ख़तरे उठाने होंगे,
अगर तुम युवा हो।
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अगर तुम युवा हो

गूँज रही हैं चारो ओर
झींगुरों की आवाजें।
तिलचिट्टे फदफदा रहे हैं
अपने पंख।
जारी है अभी भी नपुंसक विमर्श।
कान मत दो इन पर।
चिन्‍ता मत करो।
तुम्‍हारे सधे कदमों की धधक से
सहमकर शान्‍त हो जायेंगे
अँधेरे के सभी अनुचर।
जियो इस तरह कि
आने वाली पीढ़ि‍यों से कह सको --
'हम एक अँधेरे समय में  पैदा हुए
और पले-पढ़े
और लगातार उसके खिलाफ सक्रिय रहे'
और तुम्‍हें बिल्‍कुल हक होगा
यह कहने का बशर्ते कि
तुम फैसले पर पहुँच सको
बिना रुके, बिना ठिठके।
मत भूलो कि देर से फैसले पर पहुँचना
आदमी को बूढ़ा कर देता है।
जीवन के प्‍याले से छककर पियो
और लगाओ चुनौती भरे ठहाके
पर कभी न भूलो उनको
जिनके प्‍याले खाली हैं।
आश्‍चर्यजनक हों तुम्‍हारी योजनाएँ
पर व्‍यावहारिक हों।
सागर में दूर तक जाने की
बस ललक भर ही न हो,
तुम्‍हारी पूरी जिन्‍दगी ही होनी चाहिए
एक खोजी यात्रा।
सपने देखने की आदत
बनाये रखनी होगी
और मुँह अँधेरे जागकर
सूरज की पहली किरण के साथ
सक्रिय होने की आदत भी
डाल लेनी होगी तुम्‍हें।
कुछ चीजें धकेल दी गयी हैं
अँधेरे में।
उन्‍हें बाहर लाना है,
जड़ों तक जाना है
और वहीं से ऊपर उठना है
टहनियों को फैलाते हुए
आकाश की ओर।
सदी के इस छोर से
उठानी है फिर आवाज
'मुक्ति' शब्‍द को
एक घिसा हुआ सिक्‍का होने से
बचाना है।
जनता को सुषुप्‍त-अज्ञात मेधा तक जाना है
जो जड़-निर्जीव चीजों को
सक्रिय जीवन में रूपा‍न्‍तरित करेगी
एक बार फिर।
जीवन से अपहृत चीजों की
बरामदगी होगी ही एक न एक दिन।
आकाश को प्राप्‍त होगा
उसका नीलापन,
वृक्षों को उनका हरापन,
तुषारनद को उसकी श्‍वेताभा
और सूर्योदय को उसकी लाली
तुम्‍हारे रक्‍त से,
अगर तुम युवा हो।
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अगर तुम युवा हो

जब तुम्‍हें होना है
हमारे इस ऊर्जस्‍वी, सम्‍भावनासम्‍पन्‍न,
लेकिन अँधेरे, अभागे देश में
एक योद्धा शिल्‍पी की तरह
और रोशनी की एक चटाई बुननी है
और आग और पानी और फूलों और पुरातन पत्‍थरों से
बच्‍चों का सपनाघर बनाना है,
तुम सुस्‍ता रहे हो
एक बूढ़े बरगद के नीचे
अपने सपनों के लिए एक गहरी कब्र खोदने के बाद।

तुम्‍हारे पिताओं को उनके बचपन में
नाजिम हिकमत ने भरोसा दिलाया था
धूप के उजले दिन देखने का,
अपनी तेज रफ्तार नावें
चमकीले-नीले-खुले समन्‍दर में दौड़ाने का।
और सचमुच हमने देखे कुछ उजले दिन
और तेज़ रफ्तार नावें लेकर
समन्‍दर की सैर पर भी निकले।
लेकिन वे थोड़े से उजले दिन
बस एक बानगी थे,
एक झलक मात्र थे,
भविष्‍य के उन दिनों की
जो अभी दूर थे और जिन्‍हें तुम्‍हें लाना है
और सौंपना है अपने बच्‍चों को।
हमारे देखे हुए उजले दिन
प्रतिक्रिया की काली आँधी में गुम हो गये दशकों पहले
और अब रात के दलदल में
पसरा है निचाट सन्‍नाटा,
बस जीवन के महावृतान्‍त के समापन की
कामना या घोषणा करती बौद्धिक तांत्रिकों की
आवाजें सुनायी दे रही हैं यहाँ-वहाँ
हम नहीं कहेंगे तुमसे
सूर्योदय और दूरस्‍थ सुखों और
सुनिश्चित विजय
और बसन्‍त के उत्‍तेजक चुम्‍बनों के बारे में
कुछ बेहद उम्‍मीद भरी बातें
हम तुम्‍हें भविष्‍य के प्रति आश्‍वस्‍त नहीं
बेचैन करना चाहते हैं।
हम तुम्‍हें किसी सोये हुए गाँव की
तन्द्रिलता की याद नहीं,
बस नायकों की स्‍मृतियाँ
विचारों की विरासत
और दिल तोड़ देने वाली पराजय का
बोझ सौंपना चाहते हैं
ताकि तुम नये प्रयोगों का धीरज सँजो सको,
आने वाली लड़ाइयों के लिए
नये-नये व्‍यूह रच सको,
ताकि तुम जल्‍दबाज़ योद्धा की ग़लतियाँ न करो।

बेशक थकान और उदासी भरे दिन
आयेंगे अपनी पूरी ताकत के साथ
तुम पर हल्‍ला बोलने और
थोड़ा जी लेने की चाहत भी
थोड़ा और, थोड़ा और जी लेने के लिए लुभायेगी,
लेकिन तब ज़्ररूर याद करना कि किस तरह
प्‍यार और संगीत को जलाते रहे
हथियारबंद हत्‍यारों के गिरोह
और किस तरह भुखमरी और युद्धों और
पा‍गलपन और आत्‍महत्‍याओं के बीच
नये-‍नये सिद्धान्‍त जनमते रहे
विवेक को दफनाते हुए
नयी-नयी सनक भरी विलासिताओं के साथ।
याद रखना फिलिस्‍तीन और इराक को
और लातिन अमेरिकी लोगों के
जीवन और जंगलों के महाविनाश को,
याद रखना सबकुछ राख कर देने वाली आग
और सबकुछ रातोरात बहा ले जाने वाली
बारिश को,
धरती में दबे खनिजों की शक्ति को,
गुमसुम उदास अपने देश के पहाड़ों के
नि:श्‍वासों को,
ज़‍हर घोल दी गयी नदियों के रुदन को,
समन्‍दर किनारे की नमकीन उमस को
और प्रतीक्षारत प्‍यार को।
एक गीत अभी खत्‍म हुआ  है,
रो-रोकर थक चुका बच्‍चा अभी सोया है,
विचारों को लगातार चलते रहना है
और अन्‍तत: लोगों के अन्‍तस्‍तल तक पहुँचकर
और अनन्‍त कोलाहल रचना है
और तब तक,
तुम्‍हें स्‍वयं अनेकों विरूपताओं
और अधूरेपन के साथ
अपने हिस्‍से का जीवन जीना है
मानवीय चीजों की अर्थवत्‍ता की बहाली के लिए
लड़ते हुए
और एक नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचना है।

तुम हो प्‍यार और सौन्‍दर्य और नैसर्गिकता की
निष्‍कपट कामना,
तुम हो स्‍मृतियों और स्‍वप्‍नों का द्वंद्व,
तुम हो वीर शहीदों के जीवन के वे दिन
जिन्‍हें वे जी न सके।
इस अँधेरे, उमस भरे कारागृह में
तुम हो उजाले की खि‍ड़कियाँ,
अगर तुम युवा हो!

भारत के यूनिवर्सिटी कैम्पसों में आख़िर चल क्या रहा है ?

क्या भारत के उच्च शिक्षा के परिसर अशांत हैं? ऐसा भ्रम होने का कारण है.

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की छात्राओं के आंदोलन की ख़बर कुछ वक्त तक मीडिया पर छाई रही. विश्वविद्यालय द्वार पर धरना देती छात्राएँ और फिर उन पर लाठी चार्ज, इस तस्वीर से कुछ बुज़ुर्गों को पिछली सदी के साठ, सत्तर या अस्सी के आरंभिक दशकों को याद करने की इच्छा हो रही है.

लेकिन क्या इस एक तस्वीर के सहारे हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि भारत के परिसरों में उथल-पुथल चल रही है? इस भ्रम को पुष्ट करने के लिए पहले पिछले तीन वर्षों में अशांत परिसरों की कई और भी तस्वीरें हैं.

हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पहले आईआईटी मद्रास, फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे में छात्रों की बेचैनी की खबरें हम तक पहुचीं. इनमें हैदराबाद की हिंसा अधिक मुखर थी. उसके भी पहले ओस्मानिया यूनिवर्सिटी ख़बर में आई.

फिर जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में तथाकथित राष्ट्रविरोधी नारों के लगने और कन्हैया की गिरफ्तारी! उसके बाद जादबपुर यूनिवर्सिटी में छात्रों का जुलूस. पुणे यूनिवर्सिटी के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज से हिंसा की ख़बरें पूरे देश में फैल गईं.

पिछले तीन साल में विश्वविद्यालयों में मीडिया ने अभूतपूर्व दिलचस्पी दिखाई. ऐसा लगने लगा कि पूरे भारत में विश्वविद्यालयों में खलबली मच गई है. लेकिन थोड़ा ठहर कर इन घटनाओं पर विचार करने से कुछ अलग तस्वीर सामने आती है.

ढाई-तीन दशक पहले तक राज्यों के विश्वविद्यालयों में अलग-अलग समय छात्रों के आंदोलन होते रहते थे. बिहार से सबसे अधिक ख़बर इम्तिहान की तारीख़ बढ़ाने के लिए किए जानेवाले आंदोलन की आती थी.

राजनीतिक उत्तेजना

सत्तर के दशक में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में छात्रों की भागीदारी और फिर बिहार से उठे जयप्रकाश आंदोलन का केंद्र कॉलेज और यूनिवर्सिटी ही रहे थे. उसके भी पहले नक्सलबाड़ी के विद्रोह के बाद बिहार, बंगाल, दिल्ली के परिसरों में छात्रों के बीच एक राजनीतिक उत्तेजना देखी गई थी.

समय के साथ यह सब कुछ थम सा गया. परीक्षा को लेकर कोई चिंता भी नहीं रह गई. विश्वविद्यालयों की सूरत धीरे-धीरे बदलने लगी और किसी का ध्यान भी नहीं गया. कोचिंग इंस्टीट्यूट एक के बाद एक, अलग-अलग नौकरियों के लिए हुनर के वादे के साथ कॉलेज की जगह लेते गए.

छात्र कॉलेज में दाखिला ज़रूर लेते हैं, लेकिन उनसे उनका रिश्ता औपचारिक-सा ही रहता है. ज़्यादातर राज्यों में शिक्षकों की बहाली रुक गई. स्थाई अध्यापकों की जगह अनुबंध पर बहालियाँ होने लगीं. कॉलेज ऐसी जगहों में तब्दील हो गए जिनपर किसी का कुछ भी दांव पर नहीं लगा था.

बदलती तस्वीर

इसका नतीजा यह हुआ कि परिसर प्रायः सिर्फ इम्तहान लेने और डिग्रियाँ बाँटनेवाली संस्था में बनकर रह गए. स्थानीय शक्ति समीकरण जो प्रायः राजनीतिक ही हुआ करते हैं, ज़रूर परिसरों को प्रभावित करते रहे हैं, लेकिन ज़्यादातर छात्र उससे अप्रभावित ही रहते हैं.

ऐसे किसी अध्ययन की जानकारी नहीं है जो कायदे से परिसरों की इस बदलती तस्वीर का एक जायज़ा लेता हो. परिसरों के खस्ताहाल होने पर रोनेवाला भी कोई न था. राजनीतिक दलों की दिलचस्पी उनमें वापस ज़िंदगी और मायने बहाल करने में नहीं. बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गुजरात, हर जगह की कहानी एक सी है.

दाखिले बढ़े हैं, लेकिन परिसर उदास होते चले गए हैं. बिहार जैसे राज्य में भी जो शिक्षक आंदोलनों के लिए जाना जाता रहा है, परिसरों की मृत्यु अनदेखी ही गई. लालू यादव के राज में यह बेरहमी से हुआ. शिक्षकों को तनख्वाह तक के लाले पड़ने लगे और राजनेताओं ने नौकरशाहों की शह पर पदों में कटौती का सिलसिला बना लिया.

छात्र राजनीति

नई बहाली की तो बात ही छोड़ दें. राज्य के द्वारा संरक्षण धीरे-धीरे हटा लिया गया और कॉलेज ख़ुद अपना इंतज़ाम करें, यह कहा जाने लगा. नतीजा यह हुआ कि नए किस्म के 'सेल्फ़ फ़िनांसिंग कोर्सेज़' शुरू हो गए और परिसरों की शक्ल ही बदल गई, उसके भीतर के रिश्ते कामकाजी से हो गए. छात्रों को भी राजनीति की फ़ुर्सत न रही.

शिक्षक का अपना वजूद ही अनिश्चित हो गया. नीतीश कुमार ने भी परिसरों से बेरुखी जारी रखी. बिहार को सिर्फ़ नमूने के तौर पर देखें. बाकी राज्य उतने ही बुरे हैं. अभी गुजरात में राहुल गाँधी के सामने अपनी व्यथा सुनाते हुए रो पड़नेवाली वाली अध्यापिका की तस्वीर हर जगह दिखलाई पड़ी है.

राज्य समर्थित परिसरों के दम तोड़ने के साथ-साथ दूसरे दर्जे के, लेकिन नए चमकीले वायदों के साथ निजी विश्वविद्यालयों का प्रवेश हुआ. राज्य सरकारों ने उनके निर्माण के लिए ख़ास क़ानून बनाए. यह स्पष्ट सिग्नल था कि राज्य इस क्षेत्र से अपना हाथ खींच रहे हैं. परिसर धीरे-धीरे ख़ामोश होते चले गए.

आईआईटी और आईआईएम

आप उन ख़बरों को हलचल का प्रमाण न मानें जो विभिन्न राजनीतिक दलों के छात्र संगठनों की गतिविधियों की होती हैं. यह सब कुछ उस वक्त में हुआ जब परिसरों में समाज के उन तबकों के किशोर प्रवेश कर रहे थे जो आज तक इनकी चौखट भी न देख सके थे.

इनके प्रवेश के साथ समाज के अभिजन का इन परिसरों से निष्क्रमण नोटिस नहीं किया गया. राज्य के परिसरों के बंजर होने के कारण ध्यान सिर्फ़ कुछेक केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर या आईआईटी और आईआईएम आदि पर ही आकर टिक गया.

पिछले तीन वर्षों में जो भी ख़बर आ रही है, वह इन्हीं के परिसरों की है, लेकिन यह किसी छात्र आंदोलन की नहीं है. आज के शासक दल द्वारा भारत के इन बचे रह गए 'इलीट' संस्थानों पर कब्ज़े की हड़बड़ी के चलते उसके साथी छात्र दल द्वारा की जा रही हिंसा को परिसर की अशांति के रूप में प्रचारित किया गया है.

केंद्र सरकार की भूमिका

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लिए जैसी सभा एक मामूली बात थी उस सभा के लिए दी गई जगह को वापस करवाके और फिर उसपर हमला करके एक हिंसक स्थिति पैदा की गई. यही नहीं, उस सभा पर किए जानेवाले हमले को रिकॉर्ड करने के लिए एक टीवी चैनल को बुलाया भी गया.

ध्यान रहे, सभा के आयोजकों ने मीडिया को नहीं बुलाया था. जो मसला निहायत ही स्थानीय था, उसे राष्ट्रीय बनाने में किसकी रुचि थी? उसी तरह हैदराबाद विश्वविद्यालय में एक निहायत ही स्थानीय झड़प में केंद्र सरकार के मंत्रियों के अनावश्यक हस्तक्षेप ने उसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया.

एक 'अयोग्य' अध्यक्ष की नियुक्ति से क्षुब्ध एफ़टीआईआई के छात्रों पर भी हमला किया गया और पुणे विश्वविद्यालय के छात्रों पर भी आक्रमण हुआ. छात्रों द्वारा फिल्म प्रदर्शन या नाटक खेला जाना या सेमिनार, जो मामूली और रोजमर्रा की बात हुआ करती थी, क्योंकी राष्ट्रीय ख़बर में बदल गए?

'रेड टेरर'

इस वर्ष के मध्य में अचानक शासक दल से जुड़े संगठन दिल्ली यूनिवर्सिटी को 'रेड टेरर' से मुक्त करने का अभियान चलाने लगे. जिस परिसर में छात्र संघ में कभी वाम छात्र संगठन घुस ही नहीं पाए, उसे लाल दहशत से आज़ाद करने की बेचैनी का क्या मतलब था?

इस तरह अगर हम गौर करें तो यह दिखलाई पड़ेगा कि पिछले तीन वर्षों में एक पैटर्न उभरता हुआ दिखलाई पड़ता है. राज्यों में उच्च शिक्षा के परिसरों के धीमे खात्मे के बाद बचे रह गए कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सुनियोजित तरीके से हिंसा का वातावरण पैदा किया गया है.

इससे छात्रों के अभिभावकों में और समाज में इन्हें लेकर एक शक पैदा हो गया है. पहली बार पूरे देश में लोग ऐसी चर्चा करते सुने जा रहे हैं कि हमारे टैक्स का पैसा इन परिसरों पर बर्बाद किया जा रहा है एक और प्रक्रिया साथ-साथ चल रही है. अब शिक्षा के प्रति गंभीर संस्थानों के रूप में अशोका या जिंदल यूनिवर्सिटी की चर्चा होने लगी है.

सार्वजनिक शिक्षा की हालत

धीरे-धीरे समाज का संपन्न तबका इनका रुख कर रहा है. अगर इसके साथ आप सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को देखें तो तस्वीर और साफ़ होती है.

प्रतिभाशाली नौजवानों के लिए अध्यापन का पेशा अपनाने का कोई प्रोत्साहन इसमें नहीं है, बल्कि पहले से मौजूद कुछ प्रावधान हटा लिए गए हैं, मसलन पीएचडी करके अध्यापन में प्रवेश करने पर मिलनेवाला इन्क्रीमेंट वापस ले लिया गया है.

यह तय किया जा रहा है कि अब इन विश्वविद्यालयों में वे ही आएँ जिन्हें कहीं और ठौर न मिला हो. नकली और प्रायोजित अशांति कहीं हमारे बचे खुचे सार्वजनिक शिक्षा के परिसरों से राजकीय समर्थन का ऑक्सीजन खींचने का बहाना तो नहीं?



आरक्षण के जनक छत्रपति शाहूजी महाराज यूं ही नहीं बन गए ‘बहुजन प्रतिपालक’

समग्र सामाजिक क्रांति के अग्रदूत शाहूजी महाराज बहुजन प्रतिपालक राजा के रूप में जाने जाते हैं। वो ऐसे समय में राजा बने थे जब मंत्री ब्राह्मण हो और राजा भी ब्राह्मण या क्षत्रिय हो तो किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन राजा की कुर्सी पर कोई शूद्र शख्स बैठा हो तो दिक्कत होना स्वाभाविक थी। छत्रपति साहू जी महाराज का जन्म तो कुन्बी (कुर्मी) जाति में हुआ था। ऐसे में उनके सामने जातिवदियों ने बहुत सारी परेशानियां पैदा की।

बहुजन हितैषी राजा-

शाहूजी महाराज इन जातिवादियों से संघर्ष करते हुए ऐसे बहुजन हितैषी राजा साबित हुए जिन्होंने दलित और शोषित वर्ग के दुख दर्द को बहुत करीब से समझा और उनसे निकटता बनाकर उनके मान-सम्मान को ऊपर उठाया । अपने राज्य की गैरबराबरी की व्यवस्था को खत्म करने के लिए देश में पहली बार अपने राज्य में पिछड़ों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की। शोषित वर्ग के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा की व्यवस्था की। गरीब छात्रों के लिए छात्रावास स्थापित किये। साहू जी महाराज के शासन के दौरान बाल विवाह पर ईमानदारी से प्रतिबंध लगाया गया। शाहू जी महाराज ने ब्राम्हण पुरोहितों की जातीय व्यवस्था को तोड़ने के लिए अंतरजातिय विवाह और विधवा पुनर्विवाह कराए। शाहू जी महाराज क्रांति ज्योति ज्योतिबा फुले से प्रभावित थे और लंबे समय तक सत्य शोधक समाज के संरक्षक भी रहे।

छत्रपति बनने की दास्तान-

छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म 26 जून, 1874 ई. को कुन्बी (कुर्मी) जागीरदार श्रीमंत जयसिंह राव आबा साहब घाटगे के यहां हुआ था। बचपन में इन्हें यशवंतराव के नाम से जानते थे। छत्रपति शिवाजी महाराज (प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी चतुर्थ कोल्हापुर में राज्य करते थे। ब्रिटिश षडयंत्र और अपने ब्राम्हण दीवान की गद्दारी की वजह से जब शिवाजी चतुर्थ का कत्ल हुआ तो उनकी विधवा आनंदीबाई ने अपने जागीरदार जयसिंह राव आबासाहेब घाटगे के पुत्र यशवंतराव को मार्च, 1884 ई. में गोद ले लिया।
बचपन में ही यशवंतराव को कोल्हापुर रियासत की राजगद्दी सम्भालनी पड़ी। हालांकि राज्य का नियंत्रण उनके हाथ में बाद 2 अप्रैल, 1894 में आया। छत्रपति शाहूजी महाराज का विवाह बड़ौदा के मराठा सरदार खानवीकर की बेटी लक्ष्मीबाई से हुआ था। शाहूजी महाराज की शिक्षा राजकोट के राजकुमार महाविद्यालय और धारवाड़ में हुई थी। वे 1894 ई. में कोल्हापुर रियासत के राजा बने, उन्होंने देखा कि जातिवाद के कारण समाज का एक वर्ग पिस रहा है।
दलित और पिछड़ों के लिए स्कूल खोले-

छत्रपति शाहूजी  महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोले और छात्रावास बनवाए। इससे उनमें शिक्षा का प्रचार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। परन्तु उच्च वर्ग के लोगों ने इसका विरोध किया। वे छत्रपति शाहूजी महाराज को अपना शत्रु समझने लगे। उनके पुरोहित तक ने यह कह दिया कि आप शूद्र हैं और शूद्र को वेद के मंत्र सुनने का अधिकार नहीं है। छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस सारे विरोध का डट कर सामना किया और अपने राज्य में राज पुरोहित पद पर सिर्फ ब्राम्हण की नियुक्ति पर रोक लगा दी।

पूरे देश में अपने राज्य में आरक्षण की शुरूआत करने वाले पहले राजा-

1894 में, जब शाहूजी महाराज ने राज्य की बागडोर संभाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिक पद के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। 1902 के मध्य में शाहू जी महाराज ने इस गैरबराबरी को दूर करने के लिए देश में पहली बार अपने राज्य में आरक्षण व्यवस्था लागू की। एक आदेश जारी कर कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिये।

महाराज के इस आदेश से ब्राह्मणों पर तो जैसे गाज गिर गयी। शाहू जी महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को अवसर उपलब्ध कराने के बाद 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या सिर्फ 35 रह गई थी। महाराज ने कोल्हापुर नगरपालिका के चुनाव में अछूतों के लिए भी सीटें आरक्षित की थी। इसका असर भी दिखा देश में ऐसा पहला मौका आया जब राज्य नगरपालिका का अध्यक्ष अस्पृश्य जाति से चुन कर आया था।

वंचितों के लिए स्कूलों व छात्रावासों की स्थापना-

छत्रपति शाहूजी महाराज ने सिर्फ यही नहीं किया, बल्कि पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की। यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए, जो सदियों से उपेक्षित थीं, इस पहल में दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए ख़ास प्रयास किये गए थे। वंचित और गरीब घरों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। शाहूजी महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। शाहूजी महाराज ने जब देखा कि अछूत-पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त संख्या हैं, तब उन्होंने वंचितों के लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करवा दिया और उन्हें सामान्य छात्रों के साथ ही पढ़ने की सुविधा प्रदान की।

शाहूजी महाराज ने कहा था-

1- छत्रपति शाहू महाराज के कार्यों से उनके विरोधी भयभीत थे और उन्हें जान से मारने की धमकियाँ दे रहे थे। इस पर उन्होंने कहा वे गद्दी छोड़ सकते हैं, मगर सामाजिक प्रतिबद्धता के कार्यों से वे पीछे नहीं हट सकते।

2- शाहू महाराज ने 15 जनवरी, 1919 के अपने आदेश में कहा था कि- उनके राज्य के किसी भी कार्यालय और गाँव पंचायतों में भी दलित-पिछड़ी जातियों के साथ समानता का बर्ताव हो, यह सुनिश्चित किया जाये। उनका स्पष्ट कहना था कि छुआछूत को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। उच्च जातियों को दलित जाति के लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करना ही चाहिए। जब तक आदमी को आदमी नहीं समझा जायेगा, समाज का चौतरफा विकास असम्भव है।

3- 15 अप्रैल, 1920 को नासिक में छात्रावास की नींव रखते हुए साहू जी महाराज ने कहा कि- जातिवाद का का अंत ज़रूरी है. जाति को समर्थन देना अपराध है। हमारे समाज की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा जाति है। जाति आधारित संगठनों के निहित स्वार्थ होते हैं। निश्चित रूप से ऐसे संगठनों को अपनी शक्ति का उपयोग जातियों को मजबूत करने के बजाय इनके खात्मे में करना चाहिए।

बाबा साहेब को पूर्ण समर्थन-

बाबा साहेब डा० भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की छात्रवृति पर पढ़ने के लिए विदेश गए लेकिन छात्रवृत्ति बीच में ही खत्म हो जाने के कारण उन्हे वापस भारत आना पड़ा l इसकी जानकारी जब शाहू जी महाराज को हुई तो महाराज खुद भीमराव का पता लगाकर मुम्बई की चाल में उनसे मिलने पहुंच गए और आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें सहयोग दिया। शाहूजी महाराज ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर के मूकनायक समाचार पत्र के प्रकाशन में भी सहायता की।

महाराजा के राज्य में कोल्हापुर के अन्दर ही दलित-पिछड़ी जातियों के दर्जनों समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। सदियों से जिन लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं था, महाराजा के शासन-प्रशासन ने उन्हें बोलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी।

छत्रपति शाहूजी महाराज का निधन 10 मई 1922 को मुम्बई में हुआ। महाराज ने पुनर्विवाह को क़ानूनी मान्यता दी थी। उनका समाज के किसी भी वर्ग से किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं था। साहू महाराज के मन में वंचित-शोषित वर्ग के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जो क्रन्तिकारी उपाय किये थे, उसके लिए मेरा क्रांतिकारी नमन.