Wednesday, March 28, 2018

क्या लोहिया और अम्बेडकर को मिलाकर एक बड़े समाजवाद की कल्पना की जा सकती है?

डॉ. राममनोहर लोहिया को याद करने के कई तरीके हो सकते है। उनके व्यक्तित्व और समाजवाद के विचार में एक-दूसरे से गुंथे हुए कई पहलू हैं जिसके आधार पर डॉ. लोहिया को याद किया जा सकता है। कभी वो महिलाओं की अस्मिता के लिए बेबाकी से बोलने वाले व्यक्ति होते हैं, तो कभी “कुजात गांधी” हो जाते है, इन सब से आगे बढ़कर वो भारतीय लोकसभा के राजनीति में नेहरू के पूर्ण बहुमत सरकार के सामने एकमात्र ऐसा विपक्ष बन जाते है जो संसद को सड़क तक ले आते है। ज़ाहिर है डॉ लोहिया का व्यक्तित्व और संघर्ष उनको बहुआयामी बना देता है।


हाल के दिनों में उत्तरप्रदेश के उपचुनावों में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के बाद जीत को बहुत बड़े राजनीतिक परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है। इस बहाने लोहियावादी और अंबेडकरवादी अपने-अपने राजनीतिक चिंतक डॉ लोहिया और डॉ अंबेडकर के विचारों में कई समस्याओं का व्यावहारिक समाधान की तलाश भी कर रहे हैं। आज डॉ. लोहिया को मौजूदा राजनीतिक संदर्भ में टटोलना अधिक उचित होगा क्योंकि डॉ. लोहिया समाजिक न्याय के लिए सामाजवाद लाना चाहते थे और डॉ अंबेडकर सामाजिक समता के लिए गणतंत्र की मुखालफत कर रहे थे।


सिद्धांतत: डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर दोनों ही जातिपरक मोबलाइजेशन का उपयोग अंतत: जातिव्यवस्था को तोड़ने के लिए ही करना चाहते थे, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर जो कुछ हुआ वह उनके स्वपनों के विपरीत ही है। दोनों ही विचारकों के सिद्धांत पिछड़ी और वंचित जातियों के बीच उभर रहे शक्तिशाली लोगों के सामाजिक-राजनैतिक आत्मरेखांकन का अस्त्र मात्र बनकर रह गये हैं। जबकि डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर के विचार और स्वप्न की सीमाएं यह कभी नहीं थी।

कई बार डॉ. लोहिया और डॉ अम्बेडकर के विचारों को आरक्षण की राजनीति का जनक मान लिया जाता है और उनके व्यक्तित्व के एक पहलू पर तमाम आलोचनाएं गढ़ दी जाती हैं। जबकि आरक्षण की ज़ोरदार वकालत करते हुए भी डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर आरक्षण नीति से निकल सकने वाले “ज़हर” के प्रति “लगातार जागरूक रहने” की ज़रूरत पर बल भी देते हैं। साथ ही “उस ज़हर के डर से इस नीति की सृजनात्मक और उपचारात्मक चमत्कारी शक्ति” को कम करके आंकने के विरुद्ध भी चेतावनी देते है।

लोहिया और अम्बेडकर दोनों ने  इस “ज़हर” से बचने के लिए जिस जागरुकता का संकेत दिया है- क्या आज के जातीय उन्माद भरे माहौल में उनका नाम जपते सत्ता के भीतर-बाहर के लोग उस ओर ध्यान दे रहे हैं? आरक्षण नीति की व्यापकता को समझने की कोशिश कभी भी नहीं के बराबर रही है।

आज आरक्षणवादी राजनीति एंव संस्कृतिकरण क जो नज़ारा दिखाई पड़ रहा है उसमें डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर के उपयुक्त विश्लेषण की ज़रूरत अधिक है। क्योंकि आज आरक्षण की राजनीति के साथ अन्य सिफारिशों मसलन, प्रगतिशील भूमि सुधार, उत्पादन संबंधों में मूलगामी परिवर्तनों आदि समतामूलक परिकल्पनाओं से राजनीति ने कन्नी नहीं काट लिया है। फिर किस आधार पर आरक्षण नीति के ख़िलाफ असमानता का मरसिया पढ़ा जा रहा है? इसके अभाव में “नई संस्कृति” के सृजन की पूरी परिकल्पना जो दोनों ही विचारकों ने की थी, अधूरी ही साबित होगी। वास्तव में इन दोनों ही विचारकों की परिकल्पना को आज़ाद भारत में जिस राजनीतिक बेईमानी के साथ लागू किया गया, उसके परिणाम ही हमारे सामने आ रहे हैं। तमाम राजनीतिक ईमानदारी के अभाव में भी आरक्षण नीति ने देश के एक बड़े समुदाय को बेहतर जीवन शैली के तरफ ढकेला है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है।

डॉ लोहिया, डॉ. अम्बेडकर के मृत्यु के बाद मधु लिमये को पत्र में लिखते हैं-

“मुझे डॉक्टर अम्बेडकर से हुई बातचीत, उनसे संबंधित चिट्ठी-पत्री मिल गई है और उसे मैं तुम्हारे पास भिजवा रहा हूं. तुम समझ सकते हो कि डॉ.आंबेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा-बहुत व्यक्तिगत रहा है और वह अब भी है। मेरी बराबर आकांक्षा रही है कि वे मेरे साथ आएं, केवल संगठन में नहीं, बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी और यह मौका करीब मालूम होता था। मैं एक पल के लिए भी नहीं चाहूंगा कि तुम इस पत्र व्यवहार को हम लोगों के व्यक्तिगत नुकसान की नज़र से देखो। मेरे लिए डॉ. अम्बेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे और गांधीजी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन समाप्त की जा सकती है।”

यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर दोनों ही विचारक कभी भी एक साथ एक मंच पर भारतीय राजनीति में वो गर्मी पैदा नहीं कर सके, जिसकी मुखालफत दोनों करते थे। वास्तव में डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर दोनों ही अपने-अपने तरीकों से समतावादी समाज की स्थापना पर ही ज़ोर दे रहे थे। दोनों ही नई सभ्यता के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श को सामने रख रहे थे। आज भी तमाम उहापोह की अवसरवादी राजनीति के मध्य दोनों ही विचारक एक-दूसरे के विरोधी नहीं एक दूसरे के पूरक ही नज़र आते है।

आज जब तमाम नीतिगत फैसलों में तकनीकी चालबाज़ियों से धीरे-धीरे आरक्षण को कमोबेश खत्म करने की कोशिशें और वैज्ञानिक चेतना के सामने वेदों और हवन कुण्डों से सारी समस्याओं का समाधान खोजा जा रहा है। डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया के अनुयायियों का एक साथ आना राजनीतिक माइलेज के हिसाब से बीस होती दिख रही है। पर अधिक ज़रूरी यह है कि तमाम राजनीतिक अवसरवाद के साथ-साथ व्यवस्था परिवर्तन के सवालों के साथ ज़ोर-आज़माइश किया जाए जिससे नई संस्कृति मूल्यों का निर्माण हो और जड़ हो चुके समाज को गतिशील बनाया जा सके।



Tuesday, March 27, 2018

क्या लोहिया आज अकेले कांग्रेस से बेहतर विकल्प होते?

लोकतंत्र की राजनीति में विचारधारा और सत्ता की तलाश दोनों में एक अजीब किस्म का तालमेल होता है। शुद्ध विचारधारा अगर सत्ता की तलाश से अलग हो, तो वो टिकाऊ तो होता है, लेकिन असरदार नहीं होता। दूसरी तरफ अगर सत्ता को प्राथमिकता दें और विचारधारा की लगाम छूट जाए तो फिर सत्ता का घोड़ा बेलगाम दौड़ने लगता है। बात करते हैं ऐसे शख्स की जिसने सत्ता को चुनौती दी तो भारतीय राजनीति का जायंट किलर कहा गया, वो नेता जिसने नेहरू के विरुद्ध 1962 में फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में कम संसाधन होने के बावजूद पूरे दमखम से मुकाबला किया।


हम बात कर रहे हैं गांधी व मार्क्स के विचारों से समाजवाद की विचारधारा गढ़ने वाले और गठबंधन राजनीति के प्रणेता श्री राम मनोहर लोहिया की। एक बार नज़र डालते हैं कि अगर आज लोहिया जीवित होते, तो वर्तमान राजनीति पर क्या विचार रखते और वो किस तरह एक मज़बूत विपक्ष बन पाते।


संसदीय राजनीति नहीं तो सत्याग्रह


लोहिया का नारा था 4 घंटे अपने पेट को, लेकिन एक घंटा अपने देश को देना चाहिए।जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ भारत के लिए प्रत्येक नागरिक से साल में 100 घंटे मांगे थे, लोहिया की मांग शायद अधिक होती। उनका मानना था कि हर काम सरकार के ज़रिये नहीं हो सकता, कुछ रचनात्मक कार्य तो समुदाय को ही करना होता है। वो कहते थे अगर वोट से बात नहीं बनती तो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए अगले चुनाव का इंतज़ार न करें, सत्याग्रह अपनाएं। वर्तमान समय में वो किसानों, मज़दूरों, विधार्थियों की दुर्दशा पर एक क्रान्ति ज़रूर खड़ी करते जो काँग्रेस या एन्टी पार्टियां करने में अभी तक असमर्थ रही हैं।

भाषाई राजनीति

गीता अनिवार्य करना, हिंदी भाषा की दक्षिण राज्यों में अनिवार्यता आज की राजनीति के कुछ ऐसे विषय हैं जिसे राष्ट्रवादिता के घोल में मिलाकर वर्तमान सरकार ने खूब परोसा है। यह एक अभिशाप है की आज की काँग्रेस भाषाई लड़ाई का ना कोई समाधान निकाल पा रही है, ना विरोध कर पा रही है और न ही कोई विकल्प दे पा रही है। लोहिया होते, तो वो देसी राष्ट्रवादिता के पुरोधा होते हुए भी अपने अभियान को ताज़गी के साथ समाज की अधूरी दिमागी आज़ादी को पूरा करने के लिए आगे बढ़ाते। एक दुष्प्रचार फैला हुआ है कि लोहिया अंग्रेज़ी विरोधी थे। नहीं, वो मानसिक गुलामी के विरोधी थे, वे चाहते थे कि बच्चे अंग्रेज़ी समेत सभी भाषाओं के लिए अपनी दिमाग की खिड़कियां खोलकर रखें।

नर-नारी समता

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नाम पर सेल्फी खेल चल रहा है, बेटियां अगर सरकार का विरोध करे तो उनका चरित्र-हरण होता है और वहीं यौन हिंसा का विरोध करने पर BHU में जो नवरात्रों में लड़कियों की पिटाई की गई, उससे लोहिया काफी दुखी होते और जमकर वर्तमान सरकार के खिलाफ इस विषय पर बहस करते। उनका मानना था कि औरत को उसकी शरीर की सीमाओं में बांधना पुरुषों की कायरता का प्रतीक है।
उनकी दृष्टि से भारत की नारी का प्रतीक सावित्री नहीं, द्रौपदी होनी चाहिए। संकट पड़ने पर द्रौपदी ने खुली सभा में दु:शासन और दुर्योधन का मुकाबला किया और मित्र कृष्ण की मदद से भरी सभा में भीष्म पितामह का विरोध किया। नर-नारी समानता विषय पर जो समाज में नई चेतना व आत्मविश्वास जगी है, उसे आगे बढ़ता हुआ देख लोहिया खुश होते और महिलाओं के राजनीति में आरक्षण के इन सवालों पर अपनी पूरी ताकत लगा देते।

धर्मांध

जिस तरह से धर्मों के लिए या धर्मों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है, घरवापसी जैसे अभियान चलाये जा रहे हैं, हर संदर्भ को राष्ट्रवादिता से जोड़ा जा रहा है, लोहिया निष्पक्ष रूप से वर्तमान सरकार के सामने एक बड़ा विपक्ष बनकर उभरते। उनका मानना था कि धर्म, दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। उन्होंने चेतावनी दी थी कि एक तरफ हिन्दू जाती प्रथा का मारा हुआ है और मुसलमान में भी जाती-प्रथा और देसी-विदेशी का फर्क है। हर मुसलमान को बाबर, गोरी की औलाद मानना गलत होगा और मुसलामानों को भी यह समझना होगा की जिन्होंने पुस्तकालय जलाये, मंदिर-मस्जिद गिराए, लोगों को रक्तरंजित किया, वो उनके पुरखे कैसे हो सकते हैं। वह निश्चित ही धर्मावलम्बियों के लिए यह बहस ज़रूर छेड़ते कि हिन्दू-मुस्लिम साझेदारी कैसे विभिन्न पीड़ायें मिटा सकती है।

लोहिया के विचार अपने समय से आगे थे। लोहिया का एक ही पाप था: आज़ादी के बाद पैदा “भोगवाद” और दिशाहीनता के लिए देश को सचेत करते हुए उन्होंने नेहरू के नेतृत्व का खुलकर विरोध किया था जिससे उन्हें बहुत अर्धसत्यों का शिकार होना पड़ा। जैसे आजकल फेक न्यूज़ या ट्रोलिंग के द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है।

आज लोहिया के विचारों का उल्लेख करने वाले नेता हर दल में शामिल है लेकिन उन्हें यह तय करना होगा कि वोट बैंक के लिए लोहिया के विचारों को गिरवी रखना कितना सही है और क्या वो नेता जो उन्हें अपना गुरु मानते हैं, वोट-फावड़ा-जेल के ज़रिये उन मूल्यों पर अडिग रहेंगे जो उनके विचार-गुरु ने 5 दशक पहले जिया था।

जैसा लोहिया ने कहा था कि लोग मेरी सुनेंगे ज़रूर, लेकिन मेरे मर जाने के बाद, और इसीलिए उनके विचार समकालीन राजनीति के लिए बहुत ज़रूरी और प्रासंगिक हैं और आगे भी रहेंगे।


Monday, March 26, 2018

ये दलितों की बस्ती है...


बोतल महँगी है तो क्या हुआ,
थैली खूब सस्ती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

1.यहाँ जन्मते हर बालक को,
पकड़ा देते हैं झाडू।
वो बेटा, अबे, साले,
परे हट, कहते हैं लालू कालू
गोविंदा और मिथुन बन कर,
खोद रहे हैं नाली।
दूजा काम इन्हें ना भाता
इसी काम में मस्ती है।।
ये दलितो की बस्ती है ।

2.सूअर घूमते घर आंगन में,
झबरा कुत्ता घर द्वारे
वह भी पीता वह भी पीती,
पीकर डमरू बाजे
भूत उतारें रातभर,
बस रात ऐसे ही कटती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

3.ब्रह्मा विष्णु इनके घर में,
कदम कदम पर जय श्रीराम।
रात जगाते शेरोंवाली की......
करते कथा सत्यनाराण..।।
पुरखों को जिसने मारा
उसकी ही कैसिट बजती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

4.यहाँ बरात मैं बलि चढ़ाते,
मुर्गा घेंटा और बकरा
बेटी का जब नेग करें,
तो माल पकाते देग भरा
जो जितने ज्यादा देग बनाये
उसकी उतनी हस्ती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

5.तू चूहड़ा और मैं चमार हूँ,
ये खटीक और वो कोली।
एक तो हम कभी बन ना पाये,
बन गई जगह जगह टोली।।
अपना मुक्तिदाता को भूले,
गैरों की झांकी सजती है।
ये दलितो की बस्ती है ।।

6.हर महीने वृंदावन दौड़े,
माता वैष्णो छ: छ: बार।
गुडगाँवा की जात लगाता,
सोमनाथ को अब तैयार।।
बेटी इसकी चार साल से,
दसवीं में ही पढ़ती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

7.बेटा बजरंगी दल में है,
बाप बना भगवा धारी भैया हिन्दू
परिषद में है, बीजेपी में महतारी।
मंदिर मस्जिद में गोली,
इनके कंधे चलती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

8.आर्य समाजी इसी बस्ती में,
वेदों का प्रचार करें
लाल चुनरिया ओढ़े,
पंथी वर्णभेद पर बात करें
चुप्पी साधे वर्णभेद पर,
आधी सदी गुजरती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

9.शुक्रवार को चौंसर बढ़ती,
सोमवार को मुख लहरी।
विलियम पीती मंगलवार को,
शनिवार को नित जह़री।।
नौ दुर्गे में इसी बस्ती में,
घर घर ढोलक बजती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

10.नकली बौद्धों की भी सुन लो,
कथनी करनी में अंतर।
बात करें बौद्ध धम्म की,
घर में पढ़ें वेद मंतर।।
बाबा साहेब  की तस्वीर लगाते,
इनकी मैया मरती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

11.औरों के त्यौहार मनाकर,
व्यर्थ खुशी मनाते हैं।
हत्यारों को ईश मानकर,
गीत उन्हीं के गाते है।।
चौदह अप्रैल को बाबा साहेब की जयंती,
याद ना इनको रहती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

12.डोरीलाल इसी बस्ती का,
कोटे से अफसर बन बैठा।
उसको इनकी क्या पड़ी अब,
वह दूजों में जा बैठा।।
बेटा पढ़ लिखकर शर्माजी,
बेटी बनी अवस्थी है।
ये दलितो की बस्ती है ।

13.भूल गए अपने पुरखों को,
महामही इन्हें याद नहीं।
अम्बेडकर बिरसा बुद्ध,
वीर ऊदल की याद नहीं।
झलकारी को ये क्या जानें,
इनकी वह क्या लगती है।
ये दलितो की बस्ती है ।

मैं भी लिखना सीख गया हूँ,
गीत कहानी और कविता।
इनके दु:ख दर्द की बातें, मैं
भी भला कहाँ लिखता था।।
कैसे समझाऊँ अपने लोगों को मैं,
चिंता यही खटकती है
ये दलितों की बस्ती है।।

Monday, March 12, 2018

मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया (पूर्व राज्यसभा सांसद) वरिष्ठ सदस्य काका कालेकर आयोग

"शुद्र राज्य अवश्य आएगा मेरे जीवनकाल में आएगा"-
इस विचार के जनक का आज जन्मदिन है। इस अवसर पर हम उन्हें स्मरण एवं नमन करते हैं।
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया
(13.3.1903 -18.9.1995)
जन्म एवं बाल्यकाल
मान्यवर शिवदयाल सिंह चौरसिया जी का जन्म ग्राम खरिका (वर्तमान नाम तेलीबाग) लखनऊ में हुआ। इनके पिता का नाम मा.पराग राम चौरसिया था।
चौरसिया जी का बाल्यकाल, गुलामी और सामाजिक परतंत्रता का युग था जिसमें बहुजन का बच्चा अपने माता-पिता के साथ विद्यालय में नाम लिखाने के लिए जाता था तो उसके माता-पिता के सामने ही तिरस्कृत कर जाती और जातीय धंधे की याद दिलाकर वापस घर लौटा दिया जाता था। बहुजन के लिए जातीय धंधे के सिवाय पढ़ना लिखना कतई मना था। शासन और शिक्षा की बागडोर आर्य-ब्राह्मणों के हाथ में थी।
वह माता पिता धन्य है जिन्होंने सामाजिक भेदभाव, जाति ग्रस्तता और अमानवीय छुआछूत के युग का मुकाबला किया और वीर बालक चौरसिया जी को पढ़ाने लिखाने का साहस जुटाया।
मुफ्त कानूनी सहायता
गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य रहा। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम जस्टिस एच एन भगवती (जज सुप्रीम कोर्ट) को प्रभावित किया और जस्टिस भगवती जी के चेंबर में फ्री कानूनी सहायता देने वाली बैठकें की। चौरसिया जी के सतत प्रयासों से ही अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया जिसमें अब गरीबों को नि:शुल्क और यथासंभव त्वरित न्याय दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था हो गई है। लोक अदालतें उसी विधि की एक कड़ी है। कानून और अदालत के क्षेत्र में गरीबों के हितार्थ चौरसिया जी की यह बहुत बड़ी देन है।
शिक्षा पर जोर
चौरसिया जी को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे। इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। शिक्षा को ही राष्ट्रीयता का आधार बनाना चाहते थे।
दृढ़ निश्चय
चौरसिया जी अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही मरुंगा। शूद्र राज अवश्य आएगा और मेरे जीवनकाल में ही आएगा।
लोहिया से विवाद
डॉ राम मनोहर लोहिया ने समस्त पिछड़े वर्गों को 60% की सीमा तक ही प्रतिनिधित्व दिए जाने का निश्चय किया और समस्त नारी समाज को भी इसमें जोड़ लिया। चौरसिया जी और साथियों का कहना था कि ऊंची जाति की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी होती हैं। अगर महिलाओं का % निर्धारित नहीं किया जाएगा तो 60% के आरक्षण का अधिकांश भाग ऊंची जातियों के हक में ही चला जाएगा। लोहिया जी सहमत नहीं हुए और नारा दिया-
"संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ"
लोहिया जी की साठ वाली बात भी "सांठ-गांठ" में तब्दील हो गई। चूँकि लोहिया गांधीवादी नेता थे। आप जानते हो गांधीवादी, ब्राह्मणवादी होता है और ब्राह्मणवादी सदैव बेईमान होता है। ब्राह्मणवादी बहुजन के हक को मारकर अपना पेट पालने वाला शक्तिशाली परजीवी होता है। आज भी परजीवियों के लिए समस्त पिछड़े वर्गों की 6783 जातियों के लोग सॉफ्ट टारगेट पर रहते हैं। ये उसका हक मारने और पीड़ित करने में देर नहीं लगाते।
इस तरह अपने जीवन काल में लोहिया ने लाखों-करोड़ों पिछड़े वर्ग के लोगों को खूबसूरत ढंग से बेवकूफ बनाया और उनकी आंखों में समाजवाद के नाम पर लाल मिर्च झोंकी और बहुजन आंदोलनों को कमजोर करते रहे। इसके अलावा समय-समय पर उनका हक मारकर ब्राह्मणवाद को परोसा और बढ़ावा दिया।

साइमन कमीशन
भारत में संवैधानिक सुधारों के द्वारा वंचित वर्गों को उनका हक और अधिकार देने के पक्ष में आया था। परंतु उच्च वर्णिय लोगों को बहुजन पर शासन करने की आजादी खिसकती हुई नजर आने लगी। इसलिए उन्होंने जोरदार विरोध किया।
यह संवैधानिक व्यवस्था की शुरुआत थी। उपरोक्त विधान के तहत साइमन कमीशन ने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा शुरू कर दिया। और वंचितों को शासन सत्ता में प्रतिनिधित्व देने के लिए भारतीय सांविधिक आयोग ने 5.1.1928 में लखनऊ का दौरा किया। हजारों की संख्या में भीड़ में एकत्र होकर विभिन्न संगठनों पार्टियों दबाई-सताई वंचित समाज की विभिन्न जातियों आदि द्वारा साइमन सर को ज्ञापन सौंपे गए। 
वंचित समाज की विभिन्न जातियों संगठनों द्वारा दिए गए ज्ञापन तथा बतौर गवाहों की हिंदी में व्यक्तिगत सुनवाई को अंग्रेजी में अनुवाद कर साइमन सर को बताना, व लिखकर देना चुनौतीपूर्ण कार्य कर उन्होंने बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। कार्यक्रम के अंत में स्वयं डिप्रेस्ड क्लासेज की ओर से अपना क्रांतिकारी बयान कलमबंद करवाया।
अन्य पिछड़ी जातियों के हक और अधिकारों की रक्षा
लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अछूतों के अलावा शूद्र जातियों को प्रतिनिधित्व (तथाकथित आरक्षण) देने के लिए बाबा साहब को साफ मना कर दिया और कहा कि हमें आरक्षण की क्या जरूरत। फिर भी डॉ.अंबेडकर ने शूद्र जातियों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग बना दिया तथा उनके लिए संविधान में प्रतिनिधित्व पाने के हक की व्यवस्था कर दी।
प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29.1.1953 में भारत के राष्ट्रपति जी द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को परिभाषित करने, उनके सामाजिक आर्थिक राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु एक आयोग गठित किया गया। चौरसिया जी आयोग के महत्वपूर्ण गैर कांग्रेसी सदस्य मनोनीत किए गए। इस संबंध में 30.10.1953 को वह डॉ.अंबेडकर के विचार विमर्श हेतु दिल्ली गए थे। आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर पूना के निवासी एक ब्राह्मण थे। उन्होंने चौरसिया जी के द्वारा बनाई गई रिपोर्ट अन्य पिछड़ी जातियों के पक्ष में ही दी जिसे देखकर नेहरू आग बबूला हो उठे थे। नेहरू ने काका कालेलकर से ना चाहते हुए भी रिपोर्ट खारिज करने की सिफारिश लगवाई। नेहरू ने 16 वर्ष तक भारत के प्रधानमंत्री के पद पर रहकर उच्च वर्णों की उन्नति और मूलनिवासी बहुजनों की अवनति के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। न्यायपालिका में भी अपने समर्थक आर्य-ब्राह्मण न्यायाधीशों की नियुक्ति करवाते रहें ताकि भविष्य में मूलनिवासियों को कोई हक और अधिकार मिलने के पक्ष में कभी कोई निर्णय न होने पाए।
काका कालेलकर के द्वारा दिए गए विरोधाभासी पत्र ने चौरसिया जी एवं डॉ अंबेडकर जी के जीवन भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। यह अन्याय न केवल उनके साथ बल्कि करोड़ों पिछड़ों के साथ हुआ और उन जातियों को सदैव आर्यों की दासता का जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया गया।
इस सब के बावजूद चौरसिया जी चुप और शांत नहीं बैठे। अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों को लामबंद करने के लिए देशभर के प्रायः सभी राज्यों में अपना संघर्ष और आंदोलन तेज कर दिया। इसका लाभ यह हुआ कि पिछड़े वर्ग की विभिन्न जातियों के लोग चुनकर संसद में आने लगे और उनके अंदर दासता के विरुद्ध जागरुकता एवं विद्रोह का संचार पनपने लगा। चूँकि संवैधानिक हक पाने के लिए संसद में बहुमत की आवश्यकता है परंतु संसद में बहुमत ना होने से यह मामला ब्राह्मणवाद की चोट और धोखा खाकर संसद में लटक रहा है। इन जातियों की सांसो की डूबती हुई धड़कनों को बचाने के लिए बहुत विलंब से वर्ष 1989-90 में मा. विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में ऑक्सीजन तो दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्सीजन की पूरी मात्रा देने से रोक लगा दी।

मान्यवर कांशीराम जी से मुलाकात
दोनों की परस्पर समान विचारधारा होने के कारण एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने लगे। काशीराम जी (बामसेफ डीएस4 BSP के संस्थापक) एक जुझारू व्यक्ति थे। उस समय तक पिछड़े वर्ग के पास ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो इस समाज की दिशा एवं दशा को तय करती। प्रिंट मीडिया पर केवल आर्यों का ही एकछत्र अधिकार था। इस समय तक बहुजन समाज में अनेक विचारक और चिंतक हुए परंतु अपनी अपनी जाति तक ही सीमित रहे और अपनी जाति की ही डोर पकड़कर कटी पतंग की तरह अधोगति को प्राप्त हुए।
डी के खापर्डे, दीना भाना एवं काशीराम जी ने इस बुराई को पहचाना और एक ऐसे संगठन की रूपरेखा तैयार करने में लग गए जो समस्त पिछड़े वर्ग (SC ST OBC MC) के लिए हो। उन्हें एक झंडे के नीचे रखकर उनके हितों की रक्षा के लिए एक नए जोश-खरोश के साथ संघर्ष शुरू किया। चौरसिया जी ने तन मन धन से सहयोग देकर इस संगठन की हौसला अफजाई की।
राज्य में सत्ता परिवर्तन के समय उन्होंने शुगर की बीमारी के बावजूद खुशी के दिन मिठाई खाई थी और कहा था कि मेरा संघर्ष और जीवन सफल हुआ।
परिनिर्वाण दिवस
चौरसिया जी 18.9.1995 को यशकायी होने के बाद एक बहुत बड़ा अनसुलझा प्रश्न छोड़ गए हैं जिसको वह अपने जीवनकाल में पूरा नहीं कर पाए। वह कहा करते थे कि पिछड़ा(SC ST OBC) और अल्पसंख्यकों (MC) की जातियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर न्यायालयों, सरकारी नौकरियों आदि में प्रतिनिधित्व कब मिलेगा ?