डॉ. राममनोहर लोहिया को याद करने के कई तरीके हो सकते है। उनके व्यक्तित्व और समाजवाद के विचार में एक-दूसरे से गुंथे हुए कई पहलू हैं जिसके आधार पर डॉ. लोहिया को याद किया जा सकता है। कभी वो महिलाओं की अस्मिता के लिए बेबाकी से बोलने वाले व्यक्ति होते हैं, तो कभी “कुजात गांधी” हो जाते है, इन सब से आगे बढ़कर वो भारतीय लोकसभा के राजनीति में नेहरू के पूर्ण बहुमत सरकार के सामने एकमात्र ऐसा विपक्ष बन जाते है जो संसद को सड़क तक ले आते है। ज़ाहिर है डॉ लोहिया का व्यक्तित्व और संघर्ष उनको बहुआयामी बना देता है।
हाल के दिनों में उत्तरप्रदेश के उपचुनावों में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के बाद जीत को बहुत बड़े राजनीतिक परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है। इस बहाने लोहियावादी और अंबेडकरवादी अपने-अपने राजनीतिक चिंतक डॉ लोहिया और डॉ अंबेडकर के विचारों में कई समस्याओं का व्यावहारिक समाधान की तलाश भी कर रहे हैं। आज डॉ. लोहिया को मौजूदा राजनीतिक संदर्भ में टटोलना अधिक उचित होगा क्योंकि डॉ. लोहिया समाजिक न्याय के लिए सामाजवाद लाना चाहते थे और डॉ अंबेडकर सामाजिक समता के लिए गणतंत्र की मुखालफत कर रहे थे।
सिद्धांतत: डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर दोनों ही जातिपरक मोबलाइजेशन का उपयोग अंतत: जातिव्यवस्था को तोड़ने के लिए ही करना चाहते थे, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर जो कुछ हुआ वह उनके स्वपनों के विपरीत ही है। दोनों ही विचारकों के सिद्धांत पिछड़ी और वंचित जातियों के बीच उभर रहे शक्तिशाली लोगों के सामाजिक-राजनैतिक आत्मरेखांकन का अस्त्र मात्र बनकर रह गये हैं। जबकि डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर के विचार और स्वप्न की सीमाएं यह कभी नहीं थी।
कई बार डॉ. लोहिया और डॉ अम्बेडकर के विचारों को आरक्षण की राजनीति का जनक मान लिया जाता है और उनके व्यक्तित्व के एक पहलू पर तमाम आलोचनाएं गढ़ दी जाती हैं। जबकि आरक्षण की ज़ोरदार वकालत करते हुए भी डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर आरक्षण नीति से निकल सकने वाले “ज़हर” के प्रति “लगातार जागरूक रहने” की ज़रूरत पर बल भी देते हैं। साथ ही “उस ज़हर के डर से इस नीति की सृजनात्मक और उपचारात्मक चमत्कारी शक्ति” को कम करके आंकने के विरुद्ध भी चेतावनी देते है।
लोहिया और अम्बेडकर दोनों ने इस “ज़हर” से बचने के लिए जिस जागरुकता का संकेत दिया है- क्या आज के जातीय उन्माद भरे माहौल में उनका नाम जपते सत्ता के भीतर-बाहर के लोग उस ओर ध्यान दे रहे हैं? आरक्षण नीति की व्यापकता को समझने की कोशिश कभी भी नहीं के बराबर रही है।
आज आरक्षणवादी राजनीति एंव संस्कृतिकरण क जो नज़ारा दिखाई पड़ रहा है उसमें डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर के उपयुक्त विश्लेषण की ज़रूरत अधिक है। क्योंकि आज आरक्षण की राजनीति के साथ अन्य सिफारिशों मसलन, प्रगतिशील भूमि सुधार, उत्पादन संबंधों में मूलगामी परिवर्तनों आदि समतामूलक परिकल्पनाओं से राजनीति ने कन्नी नहीं काट लिया है। फिर किस आधार पर आरक्षण नीति के ख़िलाफ असमानता का मरसिया पढ़ा जा रहा है? इसके अभाव में “नई संस्कृति” के सृजन की पूरी परिकल्पना जो दोनों ही विचारकों ने की थी, अधूरी ही साबित होगी। वास्तव में इन दोनों ही विचारकों की परिकल्पना को आज़ाद भारत में जिस राजनीतिक बेईमानी के साथ लागू किया गया, उसके परिणाम ही हमारे सामने आ रहे हैं। तमाम राजनीतिक ईमानदारी के अभाव में भी आरक्षण नीति ने देश के एक बड़े समुदाय को बेहतर जीवन शैली के तरफ ढकेला है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है।
डॉ लोहिया, डॉ. अम्बेडकर के मृत्यु के बाद मधु लिमये को पत्र में लिखते हैं-
“मुझे डॉक्टर अम्बेडकर से हुई बातचीत, उनसे संबंधित चिट्ठी-पत्री मिल गई है और उसे मैं तुम्हारे पास भिजवा रहा हूं. तुम समझ सकते हो कि डॉ.आंबेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा-बहुत व्यक्तिगत रहा है और वह अब भी है। मेरी बराबर आकांक्षा रही है कि वे मेरे साथ आएं, केवल संगठन में नहीं, बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी और यह मौका करीब मालूम होता था। मैं एक पल के लिए भी नहीं चाहूंगा कि तुम इस पत्र व्यवहार को हम लोगों के व्यक्तिगत नुकसान की नज़र से देखो। मेरे लिए डॉ. अम्बेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे और गांधीजी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन समाप्त की जा सकती है।”
यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर दोनों ही विचारक कभी भी एक साथ एक मंच पर भारतीय राजनीति में वो गर्मी पैदा नहीं कर सके, जिसकी मुखालफत दोनों करते थे। वास्तव में डॉ लोहिया और डॉ अम्बेडकर दोनों ही अपने-अपने तरीकों से समतावादी समाज की स्थापना पर ही ज़ोर दे रहे थे। दोनों ही नई सभ्यता के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श को सामने रख रहे थे। आज भी तमाम उहापोह की अवसरवादी राजनीति के मध्य दोनों ही विचारक एक-दूसरे के विरोधी नहीं एक दूसरे के पूरक ही नज़र आते है।
आज जब तमाम नीतिगत फैसलों में तकनीकी चालबाज़ियों से धीरे-धीरे आरक्षण को कमोबेश खत्म करने की कोशिशें और वैज्ञानिक चेतना के सामने वेदों और हवन कुण्डों से सारी समस्याओं का समाधान खोजा जा रहा है। डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया के अनुयायियों का एक साथ आना राजनीतिक माइलेज के हिसाब से बीस होती दिख रही है। पर अधिक ज़रूरी यह है कि तमाम राजनीतिक अवसरवाद के साथ-साथ व्यवस्था परिवर्तन के सवालों के साथ ज़ोर-आज़माइश किया जाए जिससे नई संस्कृति मूल्यों का निर्माण हो और जड़ हो चुके समाज को गतिशील बनाया जा सके।