Friday, October 27, 2017

'दलितों के लिए देश नहीं, ख़ुद लड़ना होगा उन्हें'

क्या जातीय हिंसा और भेदभाव से देश और इसे भुगतने वाले दलित, दोनों एक बराबर प्रभावित होते हैं?

क्या देश के सभी नागरिकों के साथ एक समान व्यवहार करने के मामले में भारत 70 सालों में कुछ बेहतर हो पाया है या फिर हालात पहले जैसे ही हैं?

तर्क-वितर्क करने वाले बुद्धिजीवियों के लिए राष्ट्र अपने-आप में एक मिथक हो सकता है और यह आम लोगों की धारणा भी हो सकती है.

यह एक वर्गीकृत संरचना से बिल्कुल कम नहीं है और ऊपरी तौर पर यह एक छद्म निष्पक्ष तस्वीर पेश करती है.

इसलिए किसी ख़ास परिस्थिति में इसकी कार्रवाई पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकती है.

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ना की घटना

वाकई में दलित ऐसा ही महूसस करते हैं इसलिए ऊना की घटना देश की चेतना को नहीं बदल सकती. बदलावों के लिए दलितों और उनके दर्द से जुड़ाव होना जरूरी होता है.

जाति व्यवस्था ख़त्म करने पर राजनीतिक इच्छाशक्ति और उत्साह का अभाव दिखता है क्योंकि कथित ऊंची जातियों की कई पीढ़ियों ने इस व्यवस्था से फ़ायदा उठाया है.

दलित अगर बराबर के नागरिक बन गए तो उन्हें क्या फ़ायदा होगा? गुजरात के ऊना में गाय मारने के आरोप में कथित गोरक्षकों ने दलितों की घंटों पिटाई की थी.

इस घटना को एक साल पूरे हो चुके है. उस वक्त ऊना की घटना के बाद बहस के लिए बुलाई गए संसद के विशेष सत्र में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रह गई थीं.

ये तब था जब मौजूदा एनडीए के पास यूपीए की तुलना में अधिक सांसद हैं और दलितों की बात संसद में रखने के लिए दलित ख़ुद वहां मौजूद हैं.

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भारत में छुआछूत

ये सभी दलित सांसद ये बताने में गर्व जताते रहे कि उनकी सरकार ने इस घटना के बाद पीड़ितों को कितनी मेडिकल सहायता और अन्य तरह की मदद मुहैया कराईं.

यूपीए के समय में दलितों पर ज़्यादा जघन्य अपराध हुए, इस बात को साबित करने के लिए उनके पास अपने ही सबूत हैं.

दुख की बात तो है कि कोई ये सवाल नहीं पूछता कि अभी तक भारत में छुआछूत इतने बड़े पैमाने पर क्यों हैं?

ऊना के बाद हर कोई गोरक्षकों के अवैध तरीकों के बारे में बात कर रहा था. प्रधानमंत्री ने भी अपने पीड़ा भरे शब्द अगले दिन व्यक्त किए.

उन्हें पता था कि गाय की राजनीति उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा वोट दिला सकती है.

बीजेपी की राज्य सरकार इसके बाद ऐसे कड़े कानून ले आई जिससे गायों की सुरक्षा कम और गोरक्षकों की सुरक्षा ज़्यादा हो.

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असल तस्वीर

ऊना की घटना ने हर किसी को परेशान किया क्योंकि सबने टीवी और मोबाइल फोन पर दलितों के साथ होने वाली क्रूरता देखी.

लेकिन गैर सरकारी संगठन नवसर्जन ट्रस्ट के साल 2010 के सर्वे में एक भयावह तस्वीर सामने लाई है. यह उसी गुजरात की तस्वीर है जहां ऊना की घटना हुई है.

अगर सवाल उठता है गुजरात ही क्यों? तो इसलिए क्योंकि इसे एक मॉडल स्टेट की तरह पेश किया गया है.

गांवों में रहने वाले 90.2 फ़ीसदी दलित हिंदू होते हुए भी मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते. 64 फ़ीसदी पंचायत अपने निर्वाचित दलित सदस्यों के साथ भेदभाव करते हैं.

54 फ़ीसदी राजकीय प्राथमिक विद्यालयों में दलित बच्चों के लिए मिडडे मिल के वक्त अलग से लाइन लगाई जाती है.

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राजनीतिक परिदृश्य

यह 1569 गावों और 98,000 लोगों की प्रतिक्रियाओं के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट कुछ ठोस तथ्य हैं.

नवसर्जन ट्रस्ट को सौराष्ट्र के इलाके में उन 1500 से ज्यादा बच्चों के बारे में पता चला जिन्हें उनके शिक्षक, स्कूल के शौचालय साफ करने के लिए अलग से छांट कर रखे थे.

ये मेहतर (साफ-सफाई करने वाले) के बच्चे थे. ये कुछ ऐसी सच्चाई हैं जो हमें टीवी या मोबाइल स्क्रीन पर नहीं दिखती है लेकिन होती हर रोज़ हैं.

हालांकि ऊना की घटना ने राजनीतिक परिदृश्य में बहुत असर डाला है.

दलितों के बीच साल 1980 में गुजरात के गांवों में काम करते हुए मैंने पाया था कि दलितों को मतदान केंद्र तक अमूमन नहीं पहुंचने दिया जाता था.

दलितइमेज कॉपीरइटAFP

ना के बाद राजनीति

मुझे वहां दलितों के ऊपर शारीरिक हिंसा के साथ उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाएं भी देखने को मिली.

और ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो ऊंची जातियों के वोट नहीं डालने के फरमान को नहीं मानने की हिम्मत करते थे.

यह अभी भी आनंद ज़िले के धर्माज जैसे गांवों में ऐसा ही होता है.

यह गांव प्रभावशाली गैर प्रवासी भारतीयों और बैंक में सौ करोड़ से अधिक राशि जमा करने के लिए जाना जाता है.

ऊना और सहारनपुर की घटना के बाद राजनीतिक दल इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जो दलित वोट बैंक पहले उप जातियों में विभाजित था, वो अब दलित पहचान के नाम पर एकजुट हो जाएगा.

एनडीए की छवि को नुक़सान

सभी राजनीतिक दल यह बात बखूबी समझते हैं कि दलित भले ही 'अछूत' हो सकते हैं, लेकिन उनके वोट तो काम के हैं.

16.6 फ़ीसदी दलित वोट के बिना कोई भी राजनीतिक दल बहुमत नहीं पा सकता है.

इसलिए एनडीए ने पहली बार बौद्ध भिक्षुओं को दलितों को समझाने-बुझाने के काम पर लगाया है. ऊना की घटना के बाद एनडीए की छवि को नुक़सान पहुंचा है.

गुजरात में दलितों की आबादी महज 7.01 फ़ीसदी है. वो अकेले अपने दम पर किसी भी बड़े दल की किस्मत बदलने की स्थिति में नहीं है.

लेकिन सत्तारूढ़ बीजेपी गुजरात को लेकर आशंकित है क्योंकि यह कभी उसकी प्रयोगशाला रही है. हाल में ग़ैर-दलित वोट में बिखराव देखा गया है.

संविधान से अधिक...

हिंदू राष्ट्र का विचार लोगों की भावनाओं को छूने में कामयाब होता नहीं दिख रहा.

जाट, पटेल और मराठा जैसी जो कथित ऊंची जातियां हैं, वो अपने आरक्षण को लेकर अधिक जागरूक दिख रहे हैं न कि हिंदू राष्ट्र के नाम पर बलि का बकरा बनने को लेकर.

प्रभावशाली जातियों में भी जो गरीब लोग हैं, उन्हें इस बात का एहसास है कि ऊंची जाति की पहचान भी उनकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधार पाई है. यह राजनीति है.

दलित जो कि अपमान झेल रहे हैं, वो सरकार कौन बना रहा है इससे अधिक इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि जाति और भेदभाव ख़त्म हो.

छुआछूत मुक्त समाज?

क्या भारत साल 2047 तक, जब वो अपनी आज़ादी के सौ साल पूरे होने का जश्न मना रहा होगा, तब क्या छूआछूत मुक्त समाज बन पाएगा?

दलितों के उभार को ऐतिहासिक तौर पर हमेशा नुकसान पहुंचाया जाता रहा है. इसी सिलसिले में कभी-कभी ऊना जैसी घटना के बाद गुस्सा भी फूट पड़ता है.

यह द्वंद्व बना हुआ है कि उन्हें अपमान सहते हुए भी बहुसंख्यकों से जुड़कर रहना होगा या फिर राजनीति से अलग हो र बराबरी के लिए सामाजिक संघर्ष करना बेहतर होगा?

इतिहास की दीवारों पर यह बहुत साफ-साफ लिखा हुआ है. अमरीका के अफ्रीकी मूल के लोगों का संघर्ष का अनुभव भी सामने हैं.

सिर्फ़ सामाजिक संघर्ष ही बराबरी और सम्मान दे सकता है. दलितों को अपने अधिकारों की लड़ाई ख़ुद लड़नी पड़ेगी. यह लड़ाई पूरा देश नहीं लड़ने वाला.


Tuesday, October 24, 2017

चुनाव आयोग मोदी का हो न हो, शेषन वाला तो नहीं है'

अब तक देश का विश्वास लोकतंत्र में बना रहा है क्योंकि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और चुनावी प्रक्रिया की स्वतंत्रता को लेकर लोगों के मन में शक-शुबहा नहीं है.

ये विश्वास चुनाव आयोग के बेहतरीन ट्रैक रिकॉर्ड से कायम हुआ है, ख़ास तौर पर 1990 के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन की सख़्ती की वजह से. लेकिन आयोग के हालिया रवैए की वजह से सवालिया निशान लगे हैं.

गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख़ों के ऐलान में की जा रही देरी से एक निष्पक्ष संस्था के तौर पर आयोग की छवि पर धब्बा लगा है, अब तो कांग्रेस इस मामले को लेकर अदालत में चली गई है.

पीएम मोदी ने कहा है कि विपक्ष को मुख्य चुनाव आयुक्त के फ़ैसले पर सवाल उठाने का हक़ नहीं है. लेकिन वे शायद भूल गए कि उन्होंने 2002 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त का पूरा नाम ज़ोर देकर बोलते हुए उन पर आरोप लगाए थे, इससे पहले तक सभी लोग उन्हें जेएम लिंग्दोह के नाम से जानते थे.
तब सीएम नरेंद्र मोदी ने जेम्स माइकल लिंग्दोह परआरोप लगाया था कि वे ईसाई होने की वजह से एक दूसरी ईसाई सोनिया गांधी की मदद करने के लिए गुजरात में चुनाव टाल रहे हैं. इस पर लिंग्दोह ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि "कुछ ओछे लोग बातें बनाते रहते हैं जिन्होंने एथिस्ट (नास्तिक) शब्द नहीं सुना."

बहरहाल, चुनाव आयोग का निष्पक्ष होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है उसका सरकारी दबाव से मुक्त दिखना, वरना लोग यक़ीन कैसे कर सकेंगे कि ये स्वतंत्र संस्था किसी भी सरकार की सत्ता में हर हाल में बने रहने की कोशिशों में मददगार नहीं होगी.

ईवीएम पर शक और आयोग

इस साल मार्च में लगे ईवीएम हैकिंग के आरोपों पर चुनाव आयोग का रवैया जनता के विश्वास को मज़बूत करने वाला तो क़तई नहीं माना जा सकता.

आयोग मशीन में गड़बड़ी की आशंका को जड़ से ख़त्म करने के बदले बार-बार यही दोहराता रहा कि ईवीएम को हैक नहीं किया जा सकता जबकि आम आदमी पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज ने विधानसभा में ईवीएम जैसी मशीन को हैक करके दिखाया था.

ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप नए नहीं हैं, भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी 2009 में ईवीएम को लेकर आशंकाएँ जता चुके हैं, भाजपा के ही सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी तो इस मामले में आयोग को 2011 में अदालत में चुनौती दे चुके हैं.

चुनाव आयोग ने इस साल के विवाद को लंबे समय तक चलने दिया. हैकिंग करके दिखाने की चुनौती को लेकर उसने जैसा रवैया अपनाया उससे शंकाएँ गहरी ही हुईं, आयोग चुनौती देने वालों के सामने तरह-तरह की शर्तें लगाकर रुकावटें पैदा करता दिखा, न कि पारदर्शिता और स्पष्टता से मामले को निबटाता हुआ.

विधानसभा चुनावों के बाद विवाद उठा था और दो महीने बाद 12 मई को तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम ज़ैदी ने कहा कि आगे से सभी चुनावों मेंवीवीपीएटी का इस्तेमाल (वोटर वेरिफ़ायड पेपर ऑडिट ट्रेल) किया जाएगा, छवि के धूमिल होने से पहले यही बात कहने से उन्हें कौन रहा था?

हैकिंग के आरोप अगर पूरी तरह बोगस भी थे तो चुनाव आयोग के रवैए की वजह से उसकी अपनी इमेज और चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता शक के दायरे में आ गई जो ख़ुद को शान से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाले देश के लिए बुरा है.

चुनाव आयुक्त एक संवैधानिक पद है, इस पद से सरकार किसी आयुक्त को महाभियोग लगाए बिना नहीं हटा सकती, ऐसा प्रावधान इसीलिए है ताकि चुनाव आयोग सरकार के दबाव से पूरी तरह मुक्त होकर काम कर सके.

शेषन और उनकी विरासत

1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त बने टीएन शेषन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गड़बड़ी और धांधली करने वालों के मन में डर पैदा किया. उन्होंने चुनाव में होने वाले ख़र्च पर सख़्ती की, अनेक कड़े और असरदार क़दम उठाने के अलावा, सबसे बड़ी बात ये कि उन्होंने चुनाव आयोग की स्वतंत्रता के मानक स्थापित किए.

शेषन के कार्यकाल में वीपी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री पद पर रहे, मगर शेषन ने किसी दल या नेता के प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई, उन्हें बड़बोला और आक्रामक कहा जा सकता है लेकिन उन्होंने चुनाव आयोग की सत्ता और शक्तियों को व्यावहारिक तौर पर इस्तेमाल किया.

इस साल अगस्त महीने में हुए राज्यसभा चुनाव मेंअहमद पटेल को विजेता घोषित किए जाने से पहले देर रात तक जैसा ड्रामा हुआ उसके बाद चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता दिखाते हुए सत्ता पक्ष के दबाव के बावजूद विपक्षी उम्मीदवार की जीत पर मुहर लगाई, मगर ये ज़रूर दिखा कि चुनाव आयोग का वो रुआब नहीं है जो शेषन के ज़माने में था.

शेषन ने इस बात को समझा था कि चुनाव आयोग का रोबदार होना और उसका ऐसा दिखना, लोकतंत्र के हित में बहुत ज़रूरी है लेकिन अभी तो आयोग की इस सफ़ाई पर ही कोई यक़ीन नहीं कर रहा है कि उस पर सरकार का कोई दबाव नहीं है.

हिमाचल में चुनाव की तारीख़ 12 अक्तूबर को घोषित की गई, लेकिन गुजरात का ऐलान टाल दिया गया, जबकि कुछ ही दिन पहले तक ऐसी चर्चा चल रही थी कि आयोग विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ करा सकता है.

विपक्ष का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ी लोक-लुभावन घोषणाएँ और उद्घाटन करने वाले थे, चुनाव की तारीख़ का ऐलान होते ही वे ऐसा नहीं कर पाते इसलिए घोषणा टाल दी गई, और ये भी कि जय शाह मामले पर विवाद छिड़ने से राज्य में राजनीतिक माहौल बीजेपी के हक़ में नहीं है इसलिए पार्टी हालात संभालने के लिए कुछ समय चाहती है.

चुनाव का ऐलान होते ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है, ये शेषन ही थे जिन्होंने पहली बार आचार संहिता को पूरी सख़्ती से लागू किया था.

आयोग के तर्क

गुजरात कैडर के आइएएस अधिकारी रहे मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोती 2013 तक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के मुख्य सचिव रहे थे इसलिए विपक्ष के आरोपों को बल मिला है, उन्होंने गुजरात की तारीखों का ऐलान न करने के जो तर्क दिए हैं वे भी काफ़ी दिलचस्प हैं.

जोती ने पहले कहा कि गुजरात और हिमाचल की भौगोलिक स्थिति और मौसम एक-दूसरे से अलग हैं इसलिए वहाँ एक साथ चुनाव कराने की बात बेमानीहै, लेकिन लोग पूछ रहे हैं कि जब इसी साल मार्च में मणिपुर और गोवा में एक साथ चुनाव कराए गए थे तो क्या उनकी भौगोलिक स्थिति और मौसम एक जैसे थे?

मुख्य चुनाव आयुक्त को सवालों से परे नहीं होना चाहिए जैसा पीएम चाहते हैं, बल्कि ज़रूरत है कि वह हर तरह के शक-शुबहे से परे हो, लेकिन यह पहला मौक़ा नहीं है, और न ही चुनाव आयोग पहली संस्था है जिसकी साख घटी है, आपको याद होगा नोटबंदी के मामले में रिज़र्व बैंक को कितनी ज़िल्लत का सामना करना पड़ा था.

प्रधानमंत्री मोदी इतिहास में चाहे जैसे भी याद किए जाएँ, लेकिन लोकतंत्र के लिए ज़रूरी संस्थाओं जैसे संसद, रिज़र्व बैंक या चुनाव आयोग को मज़बूत करने के लिए तो नहीं ही याद किए जाएँगे, हालांकि इस मामले में वे इंदिरा गांधी को कड़ी टक्कर देते दिख रहे हैं.


Monday, October 23, 2017

मोदी की दहाड़ में ज़मीन खिसकने की बदहवासी

जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है." कवि को भारत में दृष्टा और ऋषि भी माना जाता है. जनतंत्र में विवेक की क्या परिभाषा हो सकती है? विशेषकर शासकों के लिए? उसके लिए किस-किस बात की दरकार है?

सबसे पहले यह ख़्याल कि जो सत्ता जनता ने उन्हें सौंपी है वह हमेशा के लिए नहीं है. दूसरे यह कि जनता प्रजा नहीं है, शासित नहीं है. शास्ति देना जनतंत्र के शासक का काम नहीं है. तीसरे, कि जो आज विपक्ष में है वह भी जनता का प्रतिनिधि है भले ही अल्पसंख्यक. इसलिए उसका पर्याप्त सम्मान और उसके मत का ध्यान, यह जनतंत्र में शासन चलाने का विवेकपूर्ण तरीका है.

यही कारण है कि जो बड़े मसले होते हैं उन पर संसद या विधानसभा में प्रायः एकमत बनाने की कोशिश की जाती है. इसीलिए जनतंत्र कुछ धीमे चलनेवाला तंत्र है. वह असहमति को विचार-विमर्श के ज़रिए सहमति तक लाने का प्रयास करता है.

बहुमत, चाहे कैसा भी हो, अल्पमत की उपेक्षा का कारण नहीं हो सकता. दुहरा दें कि जो दल अल्पमत में है उसे जनता के एक हिस्से का समर्थन प्राप्त है. इसलिए सत्ता न होते हुए भी उसकी बात का महत्त्व है.

आखिर कौन है विकास विरोधी?

ऐसा प्रतीत होता है कि यह सरकार इस जनतांत्रिक विवेक को पूरी तरह खो बैठी है. उसने जनता के एक बार किए गए चुनाव को हर काम के लिए कभी न ख़त्म होने वाला लाइसेंस मान लिया है. पूर्ण बहुमत से प्राप्त सत्ता का मद उस पर इस कदर सवार हो गया है कि उसका मुखिया यह भूल गया है कि यह जनतंत्र है और वह राजा नहीं है.

अगर यह याद रहता तो नरेंद्र मोदी गुजरात में यह धमकी न देते कि केंद्र का एक भी पैसा विकास विरोधियों को नहीं मिलेगा.

पहला सवाल यह है कि विकास विरोधी आखिर है कौन? विकास की अलग-अलग परिभाषाएँ और धारणाएँ हैं और जनतंत्र में हर किसी की जगह है. आखिर यह कोई चीन तो है नहीं जहाँ एक ही कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा तय कर दी गई लाइन पर पूरा मुल्क चलने को अभिशप्त है!

लेकिन नरेंद्र मोदी ने विकास को दो चीज़ों में शेष कर दिया है: नोटबंदी और जीएसटी. जो भी इन कदमों की आलोचना कर रहा है उसे विकास विरोधी ही नहीं राष्ट्र विरोधी तक घोषित कर दिया गया है.

गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी का एलान एक से अधिक तरीके से ग़ैरज़िम्मेदाराना है. वह भारत के संघीय चरित्र और अलग-अलग राज्य की अपनी स्वायत्तता की पूरी तरह अवहेलना करता है.

नहीं चल सकती मनम र्ज़ी '

यह ध्यान रहे कि राज्य सरकारें केंद्रीय सरकार की मातहत नहीं हैं. दूसरे, भारत बहुदलीय जनतंत्र है. अलग-अलग दलों की भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ हैं. उन्हीं से विकास की उनकी अवधारणा भी विकसित होती है.

इसका फ़ायदा यह है कि एक राज्य को दूसरे राज्य से सीखने का मौक़ा मिलता है. यहाँ तक कि कई बार केंद्रीय योजनाएँ भी कई बार किसी राज्य की योजनाओं से प्रेरित होती हैं.

तमिलनाडु की सामाजिक कल्याण की योजनाओं में काफ़ी कुछ अनुकरणीय था. वैसे ही केरल के विकास के मॉडल में दूसरे राज्यों को सीखने को था. अगर एक ही प्रकार का विकास का मॉडल हर राज्य में लागू किया गया तो उसके असफल होने की कीमत भी बहुत अधिक होगी.

नरेंद्र मोदी न सिर्फ़ संघीय गणतंत्र में प्रधानमंत्री रहने की नज़ाकत को समझ नहीं पाए हैं वे यह भी भूल गए हैं कि संसाधनों का बँटवारा मनमर्ज़ी नहीं किया जा सकता. साधनों के बँटवारे में विभिन्न राज्यों की ज़रूरत और उनके बीच संतुलन का प्रश्न अलग है.

राज ठाकरे ने यह सवाल ठीक उठाया था कि आखिर देश के बाकी राज्यों के मुक़ाबले गुजरात में क्या ख़ास है कि हर महत्त्वपूर्ण योजना में उसका नाम रहे- मसलन, बुलेट ट्रेन मुंबई और अहमदाबाद के बीच ही क्यों चले? शायद मोदी अभी तक गुजरात को अपनी पकड़ के भीतर रखने के मोह से उबर नहीं पाए हैं.

लेकिन यह भी है कि उन्हें लग रहा है कि गुजरात में उनकी और उनके उत्तराधिकारों की सरकार का रिकॉर्ड ऐसा नहीं रहा है कि इस बार चुनाव में वे उसके बल पर वापस आने की सोच सकें.

इसलिए वे परोक्ष रूप से गुजरात की जनता को धमकी दे रहे हैं कि अगर उनके दल के बदले किसी और दल को चुना तो उसे केन्द्रीय संसाधन नहीं मिलेंगे. यह इसलिए कि उन्होंने हर उस दल को जिसने उनकी आलोचना की है, विकास विरोधी घोषित कर रखा है.

भाजपा मोदी से डरती है?

याद कीजिए, इस तरह की धमकी मोदी ने 2015 में दिल्ली की जनता को दी थी. उन्होंने कहा था कि बेहतर हो कि वह भाजपा को चुनें क्योंकि राज्य की भाजपा सरकार उनके डर से काम करेगी.

यह दीगर बात है कि मोदी की इस बात का बुरा खुद भाजपा को लगना चाहिए था क्योंकि यह कहकर कि उनकी पार्टी उनके भय से काम करती है उन्होंने पूरी पार्टी को अपना मातहत बना डाला था.

भाजपा में किसी से गैरत की उम्मीद करना बेमानी था. जो ज़रा गर्दन उठाता है उसकी लानत मलामत करने को जेटली और रविशंकर प्रसाद जैसे लोग बैठे हैं.

''अहंकार फिर गूँज रहा है''

दिल्ली ने मोदी को सुना और उनके अहंकार को जगह दिखा दी. जिस दल को लोकसभा में सात की सात सीटें मिली थीं, उसे विधानसभा की सत्तर में सिर्फ तीन से संतोष करना पड़ा.

मोदी को इससे सबक न मिला. बिहार में इस एकाधिकारी मद ने फिर सर उठाया. आरा में उन्होंने बिहार की बोली ही लगानी शुरू कर दी जैसे किसी नीलामी बाज़ार में खड़े हों. झूम-झूम कर वे पूछते रहे, कितना दूं? कितना दूँ? और बोली एक लाख पचीस हजार करोड़ रुपये पर तोड़ी. बिहार की जनता ने इसे सुना और नतीजों में भाजपा को ज़मीन दिखा दी.

2015 का अहंकार फिर गूँज रहा है. लेकिन इस बार उसका खोखलापन भी बज रहा है. इस दहाड़ में पाँव के नीचे से ज़मीन खिसकने की बदहवासी है. क्या गुजरात की जनता भी कुछ तय कर रही है जो पैसे, लोभ और धमकी से नहीं खरीदा जा सकेगा ?

Monday, October 16, 2017

तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर


तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर,
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

सुबह औ' शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,
तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर,
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है,
यह आंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है,
जिधर पड़ेंगे ये क़दम बनेगी एक नई डगर
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

Thursday, October 12, 2017

प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया

राम मनोहर लोहिया एक स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर समाजवादी और सम्मानित राजनीतिज्ञ थे. राम मनोहर ने हमेशा सत्य का अनुकरण किया और आजादी की लड़ाई में अद्भुत काम किया. भारत की राजनीति में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और उसके बाद ऐसे कई नेता आये जिन्होंने अपने दम पर राजनीति का रुख़ बदल दिया उन्ही नेताओं में एक थे राममनोहर लोहिया। वे अपनी प्रखर देशभक्ति और तेजस्‍वी समाजवादी विचारों के लिए जाने गए और इन्ही गुडों के कारण अपने समर्थकों के साथ-साथ उन्होंने अपने विरोधियों से भी बहुत  सम्‍मान हासिल किया।
बचपन और प्रारंभिक जीवन
राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था. उनकी मां एक शिक्षिका थीं. जब वे बहुत छोटे थे तभी उनकी मां का निधन हो गया था. अपने पिता से जो एक राष्ट्रभक्त थे, उन्हें युवा अवस्था में ही विभिन्न रैलियों और विरोध सभाओं के माध्यम से भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा मिली. उनके जीवन में नया मोड़ तब आया, जब एक बार उनके पिता, जो महात्मा गांधी के घनिष्ठ अनुयायी थे, गांधी से मिलाने के लिए राम मनोहर को अपने साथ लेकर गए. राम मनोहर गांधी के व्यक्तित्व और सोच से बहुत प्रेरित हुए तथा जीवनपर्यन्त गाँधी जी के आदर्शों का समर्थन किया.
वर्ष 1921 में वे पंडित जवाहर लाल नेहरू से पहली बार मिले और कुछ वर्षों तक उनकी देखरेख में कार्य करते रहे. लेकिन बाद में उन दोनों के बीच विभिन्न मुद्दों और राजनीतिक सिद्धांतों को लेकर टकराव हो गया. 18 साल की उम्र में वर्ष 1928 में युवा लोहिया ने ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करने के लिए प्रदर्शन का आयोजन किया.
उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद इंटरमीडिएट में दाखिला बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कराया. उसके बाद उन्होंने वर्ष 1929 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और पीएच.डी. करने के लिए बर्लिन विश्वविद्यालय, जर्मनी, चले गए, जहाँ से उन्होंने वर्ष 1932 में इसे पूरा किया. वहां उन्होंने शीघ्र ही जर्मन भाषा सीख लिया और उनको उत्कृष्ट शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए वित्तीय सहायता भी मिली.
राम मनोहर लोहिया की विचारधारा
लोहिया ने हमेशा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी से अधिक हिंदी को प्राथमिकता दी. उनका विश्वाश था कि अंग्रेजी शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच दूरी पैदा करती है. वे कहते थे कि हिन्दी के उपयोग से एकता की भावना और नए राष्ट्र के निर्माण से सम्बन्धित विचारों को बढ़ावा मिलेगा. वे जात-पात के घोर विरोधी थे. उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में सुझाव दिया कि “रोटी और बेटी” के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है. वे कहते थे कि सभी जाति के लोग एक साथ मिल-जुलकर खाना खाएं और उच्च वर्ग के लोग निम्न जाति की लड़कियों से अपने बच्चों की शादी करें. इसी प्रकार उन्होंने अपने ‘यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी’ में उच्च पदों के लिए हुए चुनाव के टिकट निम्न जाति के उम्मीदवारों को दिया और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया. वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो, जो सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान कर सकें.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की उनकी बचपन से ही प्रबल इच्छा थी जो बड़े होने पर भी खत्म नहीं हुई। जब वे यूरोप में थे तो उन्होंने वहां एक क्लब बनाया जिसका नाम ‘असोसिएशन ऑफ़ यूरोपियन इंडियंस’ रखा. जिसका उद्देश्य यूरोपीय भारतीयों के अंदर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति जागरूकता पैदा करना था. उन्होंने जिनेवा में ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की सभा में भी भाग लिया, यद्यपि भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राज्य के एक सहयोगी के रूप में बीकानेर के महाराजा द्वारा किया गया था, परन्तु लोहिया इसके अपवाद थे. उन्होंने दर्शक गैलरी से विरोध प्रदर्शन शुरू किया और बाद में अपने विरोध के कारणों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने समाचार-पत्र और पत्रिकाओं के संपादकों को कई पत्र लिखे. इस पूरी घटना ने रातों-रात राम मनोहर लोहिया को भारत में एक सुपर स्टार बना दिया। भारत वापस आने पर वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और वर्ष 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की आधारशिला रखी. वर्ष 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का पहला सचिव नियुक्त किया.
24 मई, 1939 को लोहिया को उत्तेजक बयान देने और देशवासियों से सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करने के लिए लिए पहली बार गिरफ्तार किया गया, पर युवाओं के विद्रोह के डर से उन्हें अगले ही दिन रिहा कर दिया गया. हालांकि जून 1940 में उन्हें “सत्याग्रह नाउ” नामक लेख लिखने के आरोप में पुनः गिरफ्तार किया गया और दो वर्षों के लिए कारावास भेज दिया गया. बाद में उन्हें दिसम्बर 1941 में आज़ाद कर दिया गया. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वर्ष 1942 में महात्मा गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और वल्लभभाई पटेल जैसे कई शीर्ष नेताओं के साथ उन्हें भी कैद कर लिया गया था.
इसके बाद भी वे दो बार जेल गए, एक बार उन्हें मुंबई में गिरफ्तार कर लाहौर जेल भेजा गया था और दूसरी बार पुर्तगाली सरकार के खिलाफ भाषण और सभा करने के आरोप में गोवा. जब भारत स्वतंत्र होने के करीब था तो उन्होंने दृढ़ता से अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से देश के विभाजन का विरोध किया था. वे देश का विभाजन हिंसा से करने के खिलाफ थे. आजादी के दिन जब सभी नेता 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली में इकट्ठे हुए थे, उस समय वे भारत के अवांछित विभाजन के प्रभाव के शोक की वजह से अपने गुरु (महात्मा गाँधी) के साथ दिल्ली से बाहर थे.
स्वतंत्रता के बाद की गतिविधियाँ
आजादी के बाद भी वे राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में ही अपना योगदान देते रहे. उन्होंने आम जनता और निजी भागीदारों से अपील की कि वे कुओं, नहरों और सड़कों का निर्माण कर राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए योगदान में भाग लें. ‘तीन आना, पन्द्रह आना’ के माध्यम से राम मनोहर लोहिया ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर होने वाले खर्च की राशि “एक दिन में 25000 रुपए” के खिलाफ आवाज उठाई जो आज भी चर्चित है. उस समय भारत की अधिकांश जनता की एक दिन की आमदनी मात्र 3 आना थी जबकि भारत के योजना आयोग के आंकड़े के अनुसार प्रति व्यक्ति औसत आय 15 पन्द्रह आना था.
लोहिया ने उन मुद्दों को उठाया जो लंबे समय से राष्ट्र की सफलता में बाधा उत्पन्न कर रहे थे. उन्होंने अपने भाषण और लेखन के माध्यम से जागरूकता पैदा करने, अमीर-गरीब की खाई, जातिगत असमानताओं और स्त्री-पुरुष असमानताओं को दूर करने का प्रयास किया. उन्होंने कृषि से सम्बंधित समस्याओं के आपसी निपटारे के लिए ‘हिन्द किसान पंचायत’ का गठन किया। वे सरकार की केंद्रीकृत योजनों को जनता के हाथों में देकर अधिक शक्ति प्रदान करने के पक्षधर थे. अपने अंतिम कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने देश की युवा पीढ़ी के साथ राजनीति, भारतीय साहित्य और कला जैसे विषयों पर चर्चा किया.
निधन
राम मनोहर लोहिया का निधन 57 साल की उम्र में 12 अक्टूबर, 1967 को नई दिल्ली में हो गया.

Tuesday, October 10, 2017

विश्‍व प्रसिद्ध कथाकार अंतोन चेखव की कहानी - नक़ाब

इस कहानी को पढ़कर शायद आपको आज के पत्रकारों, बुद्धिजीवियों की याद आ जाये

अमुक सार्वजनिक क्लब में किसी संस्था की सहायतार्थ ड्रेस-बाल या जैसा कि स्थानीय नवयुवतियाँ उसे पुकारती हैं, ‘बाल पारेय’ हो रहा था।
आधी रात थी। नाच में भाग न लेने वाले बुद्धिजीवी लोग, जो नक़ाब नहीं पहने थे, वाचनालय में बड़ी मेज़ के चारों ओर बैठे हुए थे। संख्या में वे पाँच थे, उनकी नाकें और दाढ़ियाँ अख़बारों के पन्नों में दबी हुई थीं; वे पढ़ रहे थे, ऊँघ रहे थे और राजधानी के समाचारपत्रों के स्थानीय उदारचेता संवाददाता के शब्दों में “विचारमग्न” थे।
हॉल से ‘क्वैड्रिल’ नाच के संगीत की धुन आ रही थी। बैरे बार-बार दरवाज़े के पास से पैर खटखटाते और तश्तरियाँ खनखनाते हुए भाग-दौड़ कर रहे थे। किन्तु वाचनालय के भीतर गम्भीर शान्ति का साम्राज्य था।
एक घुटी हुई-सी गहरी आवाज़ ने, जो किसी सुरंग से आयी मालूम देती थी, शान्ति भंग कर दी - “मैं समझता हूँ, हमें यहाँ ज़्यादा आराम रहेगा, चले आओ साथियो! इस तरफ़!”
दरवाज़ा खुला और एक चौड़े कन्धों वाला, नाटा, हट्टा-कट्टा व्यक्ति कोचवान की वर्दी पहने, अपनी टोपी में मोरपंख लगाये, नक़ाब लगाये, वाचनालय में घुसा। उसके पीछे नक़ाब लगाये दो महिलाएँ थीं और किश्ती लिये बैरा था। किश्ती में चौड़े पेंदे वाली मदिरा की एक बोतल, लाल शराब की तीन बोतलें और कई गिलास थे।
“इस तरफ़, यहाँ ज़्यादा ठण्डा रहेगा,” इस आदमी ने कहा, “किश्ती मेज़ पर रख दो...कुमारियो बैठ जाओ! जे वू प्री आ ल्या त्रीमोन्त्रन! और आप सज्जनो, ज़रा जगह दीजिये, आपका यहाँ कोई काम नहीं।”
वह थोड़ा-सा डगमगाया और अपने हाथ से झाड़कर मेज़ पर से कई पत्रिकाएँ गिरा दीं।
“रख दो उसे! और आप पढ़ने वाले सज्जनो, रास्ते से हट जाइये! यह आप की राजनीति या अख़बार पढ़ने का वक़्त नहीं है...अख़बार रखिये!”
“आप थोड़ा शान्त रहें न!” पढ़ाकू ज्ञानियों में से एक अपने चश्मे से नक़ाबपोश की ओर घूरता हुआ बोला, “यह वाचनालय है, शराबख़ाना नहीं...यह शराब पीने की जगह नहीं है।”
“कौन कहता है? क्या मेज़ मजबूत नहीं है? या हमारे ऊपर छत आ गिरेगी? क्या मज़ाक़ है! लेकिन मेरे पास बातें करने के लिए वक़्त नहीं है। आप अपने अख़बार रख दें...बहुत पढ़ चुके आप लोग और यह पढ़ाई काफ़ी है। वैसे ही आप लोग बहुत क़ाबिल हैं। इसके अलावा ज़्यादा पढ़ने से आप लोगों की आँखें ख़राब हो जायेंगी; लेकिन ख़ास बात यह कि मेरी मर्ज़ी नहीं है - बस।”
बैरे ने मेज़ पर किश्ती रख दी और झाड़न बाँह पर डाल, दरवाज़े पर खड़ा हो गया। महिलाओं ने तुरन्त लाल शराब उँड़ेलनी शुरू कर दी।
“ज़रा सोचो तो! ऐसे भी बुद्धिमान लोग होते हैं जो ऐसी शराब से अख़बार ज़्यादा पसन्द करते हैं,” मोरपंख वाले ने अपने लिए शराब उँड़ेलते हुए कहा। “यह मेरा विश्वास है, आदरणीय महानुभावो, कि आप लोगों को अख़बार इसलिए अधिक प्रिय है कि आपके पास शराब पीने के लिए पैसा नहीं है। क्या मैं ठीक कहता हूँ? हा-हा-हा...इन पढ़ाकुओं की ओर देखो...और आपके अख़बारों में लिखा क्या है? ऐ चश्मेवाले! हमें भी कुछ ख़बर बताओ? हा-हा-हा...अच्छा बन्द करो यह सब! रोब गाँठने की या तकल्लुफ़ बरतने की ज़रूरत नहीं है! लो थोड़ी शराब पिओ!”
मोरपंख वाले ने हाथ बढ़ाते चश्मेवाले सज्जन के हाथ से अख़बार छीन लिया। चश्मेवाला भौचक्का हो दूसरे ज्ञानियों की ओर देखता हुआ ग़ुस्से से लाल-पीला पड़ने लगा; दूसरे ज्ञानी भी उसकी ओर देखने लगे।
“जनाब! आप अपने आप को भूल गये हैं!” वह चिल्लाया। “आप वाचनालय को शराबियों के अड्डे में बदले डाल रहे हैं, हंगामा कर रहे हैं, लोगों के हाथ से अख़बार छीन रहे हैं! पर मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता! आप जानते नहीं, जनाब, कि आप बात किससे कर रहे हैं! मैं बैंक का मैनेजर जेस्त्याकोव हूँ!”
“मुझे खाक परवाह नहीं है कि तुम जेस्त्याकोव हो! और तुम्हारे अख़बार की मैं कितनी इज़्ज़त करता हूँ, वह इसी से साबित हो जायेगा।”
यह कहते हुए उसने अख़बार उठा लिया और फाड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
ग़ुस्से से पागल हुआ जेस्त्याकोव बोला - “सज्जनो! इसके मानी क्या हैं? यह तो बहुत अजीब बात है, यह... यह तो... बस भौचक्का कर देने वाली बात है...”
“अब ग़ुस्सा हो रहे हैं!” वह व्यक्ति हँसते हुए बोला, “हाय, मैं कितना डर गया हूँ! देखो, डर के मारे मेरी टाँगें कैसी थर्रा रही हैं...अच्छा, सज्जनो! अब मेरी बात सुनो, मज़ाक़ अलग रहा, मैं आपसे क़तई बात करना नहीं चाहता... मैं इन कुमारियों के साथ एकान्त चाहता हूँ, मैं मौज करना चाहता हूँ, इसलिए मेहरबानी करके गड़बड़ न मचाओ और यहाँ से चुपचाप चले जाओ...वह रहा दरवाज़ा। श्री बेलेबूखिन! निकल जाओ यहाँ से, जाओ जहन्नुम में! तुम इस तरह अपना थूथन क्यों उठा रहे हो? जब मैं कहता हूँ: जाओ, तो फ़ौरन चले जाओ...जल्दी, वरना उठाकर फेंक दूँगा!”
अनाथों की अदालत के ख़ज़ानची बेलेबूखिन ने क्रोध से लाल पड़ते हुए और कन्धे मटकाते हुए कहा - “क्या  कहा तुमने? मेरी समझ में नहीं आता...कोई उद्दण्ड व्यक्ति कमरे में घुस आये और... एकाएक भगवान जाने क्या-क्या बकने लगे!”
“क्या!-क्या? उद्दण्ड?” क्रोध से मेज़ पर घूँसा मारते हुए, जिससे किश्ती में रखे गिलास उछल पड़े, मोरपंख वाला आदमी चिल्लाया, “तुम किससे बात कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि मैं नक़ाब पहने हूँ, तो तुम मुझे जो चाहो कह लोगे? तुम तो बड़े खरदिमाग़ हो! मैं कहता हूँ, निकल जाओ बाहर! और बैंक मैनेजर भी यहाँ से रफ़ूचक्कर हो जाये! तुम सब बाहर निकल जाओ! मैं नहीं चाहता कि एक भी बदमाश इस कमरे में रहे! जाओ जहन्नुम में!”
“वह हम देख लेंगे,” जेस्त्याकोव बोला, जिसके चश्मे का शीशा तक धुँधला हो गया था। “मैं तुम्हें अभी दिखाता हूँ। अरे कोई है? अरे, तुम ज़रा किसी मैनेजर-वैनेजर को तो बुलाओ!”
एक मिनट बाद, छोटे क़द का लाल बालोंवाला मैनेजर कोट के कॉलर में अपने पद का सूचक नीला फीता लगाये, नाच की मेहनत से हाँफता हुआ कमरे में आया।
“कृपा कर इस कमरे को छोड़ दो!” उसने शुरू किया, “यह पीने की जगह नहीं है! मेहरबानी करके जलपान-कक्ष में जायें।”
“और तुम कहाँ से आ टपके?” नक़ाबवाला बोला, “मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं था।”
“कृपया गुस्ताख़ी न करें और बाहर चले जायें।”
“देखिये, जनाब! मैं तुमको एक मिनट का मौक़ा देता हूँ...चूँकि तुम यहाँ के प्रबन्धक हो और एक प्रमुख अधिकारी हो, इन कलाकारों को बाहर ले जाओ। मेरे साथ की ये कुमारियाँ आसपास किसी अजनबी का रहना पसन्द नहीं करतीं... वे शर्माती हैं और मैं अपने पैसे की पूरी क़ीमत चाहता हूँ, और उन्हें बिल्कुल वैसा ही देखता हूँ, जैसा कि उन्हें प्रकृति ने बनाया था।”
“निश्चय ही यह सूअर यह नहीं समझ रहा कि वह अपने सूअरख़ाने में नहीं है,” जेस्त्याकोव चिल्लाया, “येवस्त्रत स्पिरिदोनिच को बुलाओ!”
“येवस्त्रत स्पिरिदोनिच!” सारे लब में यही आवाज़ गूँज उठी, “येवस्त्रत स्पिरिदोनिच कहाँ है?”
और शीघ्र ही वह आ पहुँचा; पुलिस की वर्दी में वह एक बूढ़ा आदमी था।
भारी गले से, अपनी डरावनी आँखें तरेरते हुए और ऐंठी हुई अपनी मूँछें हिलाते हुए वह बोला - “मेहरबानी करके कमरा छोड़ दें!”
“सचमुच तुमने तो मुझे डरा दिया,” मज़ा लेकर वह व्यक्ति हँसते हुए बोला, “भगवान की क़सम, बिल्कुल डरा दिया! कैसी मज़ाक़ि‍या सूरत है! ख़ुदा की क़सम, बिल्ली की-सी मूँछें! बाहर निकल पड़ रहीं आँखें! ओफ़! हा-हा-हा...”
ग़ुस्से से काँपता, अपना सारा दम लगाकर येवस्त्रत स्पिरिदोनिच चीख़़ा - “बहस बन्द करो! निकल जाओ, वरना मैं तुम्हें बाहर फिंकवा दूँगा!”
वाचनालय में हंगामा मचा हुआ था। लाल टमाटर बना येवस्त्रत स्पिरिदोनिच चिल्ला रहा था। सभी बुद्धिजीवी चिल्ला रहे थे। पर उन सबकी आवाज़ें नक़ाबपोश की गले से निकली दबी-घुटी, गम्भीर आवाज़ में डूब गयीं। इस होहल्ले में नाच बन्द हो गया और मेहमान लोग हॉल से निकलकर वाचनालय में आ गये।
क्लब में जितने पुलिसवाले थे, असर डालने के लिए उन सबको बुलाकर येवस्त्रत स्पिरिदोनिच रिपोर्ट लिखने बैठा।
“लिख डालो,” नक़ाबवाले व्यक्ति ने क़लम के नीचे उँगली घुसेड़ते हुए कहा, “अब मुझ बेचारे का क्या होगा? हाय, मुझ ग़रीब का क्या होगा? आप लोग क्यों अनाथ ग़रीब को बरबाद करने पर तुले हुए हैं? हा-हा-हा... अच्छा तो क्या रिपोर्ट तैयार हो गयी? क्या सब लोगों ने इस पर दस्तख़त कर दिये? अब देखो! एक...दो...तीन!”
वह उठ खड़ा हुआ, अपनी पूरी ऊँचाई तक तन गया और अपनी नक़ाब उतार फेंकी। अपना शराबी चेहरा दिखाने और उससे पड़े असर का मज़ा लूटने के बाद वह आरामकुर्सी में धँस गया और ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। सचमुच ही देखने लायक़ असर हुआ था। सभी बुद्धिजीवी हैरान नज़रों से एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे और डर से पीले पड़ गये, कुछ तो अपने सिर खुजलाते भी देखे गये। अनजाने में कोई भारी ग़लती कर डालने वाले व्यक्ति की तरह येवस्त्रत स्पिरिदोनिच ने खखारकर अपना गला साफ़ किया।
सबने पहचान लिया था कि झगड़ालू व्यक्ति पुश्तैनी इज़्ज़तदार नागरिक स्थानीय करोड़पति प्यातिगोरोव है जो हुल्लड़बाज़ी व उदारता के लिए मशहूर है, और जिसके शिक्षा-प्रेम के बारे में स्थानीय समाचारपत्र लिखते थकते नहीं थे।
“क्या  अब आप लोग यहाँ से जायेंगे या नहीं?” थोड़ा रुककर प्यातिगोरोव ने पूछा।
पंजों के बल चलते हुए, बिना एक भी शब्द कहे, बुद्धिजीवी लोग कमरे के बाहर निकल आये और उनके पीछे प्यातिगोरोव ने दरवाज़ा बन्द कर ताला लगा लिया।
“तुम जानते थे कि वह प्यातिगोरोव है,” येवस्त्रत स्पिरिदोनिच ने कुछ देर बाद वाचनालय में शराब ले जाने वाले बैरे के कन्धे झँझोड़ते हुए भारी आवाज़ में कहा, “तुमने कुछ कहा क्यों नहीं?”
“उन्होंने मुझे मना जो किया था।”
“मना किया था! ठहरो, बदमाश! मैं तुम्हें जब एक महीने के लिए जेल में ठूँस दूँगा, तब तुम्हें पता चलेगा कि ‘मना किया था’ के क्या मानी होते हैं। निकल जाओ!” फिर बुद्धिजीवी लोगों की ओर मुड़ते हुए बोला - “और आप लोग भी ख़ूब हैं! हुड़दंग मचा दिया, जैसे, दस मिनट के लिए आप वाचनालय छोड़ न सकते हों! ख़ैर, सारी गड़बड़ और मुसीबत आपकी ही लायी हुई है और आप लोग ही अब निपटिये इससे। अरे साहब, भगवान के सामने कहता हूँ, मुझे ये तरीक़े पसन्द नहीं हैं, क़तई पसन्द नहीं हैं।”
मायूस, परेशान, पछताते हुए बुद्धिजीवी लोग एक-दूसरे से फुसफुसाते हुए क्लब में इधर-उधर घूम रहे थे, उन लोगों की तरह जिन्हें आने वाली मुसीबत का पता लग गया हो...उनकी बीवियों और बेटियों पर यह सुनकर ख़ामोशी छा गयी कि प्यातिगोरोव बुरा मान गये हैं, नाराज़ हैं, और वे अपने घर चल दीं। नांच बन्द हो गया।
रात दो बजे प्यातिगोरोव वाचनालय के बाहर निकला। वह नशे में झूम रहा था। हॉल में आकर वह बैण्ड की बग़ल में बैठ गया और बाजों की धुन पर ऊँघने लगा। ऊँघते-ऊँघते उसका सिर सन्तप्त मुद्रा में लटक गया और वह खर्राटे लेने लगा।
“बन्द करो बाजे!” बैण्डवालों को इशारा करते हुए मैनेजर बोला, “श्-श्-श्-श् येगोर नीलिच सो गये हैं...”
“क्या मैं आपको घर तक पहुँचा आऊँ, येगोर नीलिच?” करोड़पति के कान तक झुकते हुए बेलेबूखिन ने पूछा।
प्यातिगोरोव ने होंठ बिचकाये, मानो गाल पर बैठी कोई मक्खी उड़ा रहा हो।
“क्या मैं आपको घर तक पहुँचा आऊँ?” बेलेबूखिन ने फिर कहा, “या आपकी गाड़ी लाने को कह दूँ?”
“क्या? तुम...तुम क्या चाहते हो?”
“आपको घर पहुँचाना... सोने जाने का समय हो गया है न...”
“घर! मैं घर जाना चाहता हूँ... मुझे घर ले चलो!”
ख़ुशी से दमकता हुआ बेलेबूखिन प्यातिगोरोव को सहारा देकर उठाने लगा। बाक़ी बुद्धिजीवी लोग भी भागते हुए आ पहुँचे और ख़ुशी से मुस्कुराते हुए उन सबने मिलकर खानदानी इज़्ज़तदार नागरिक को उठाया और बड़ी सतर्कता के साथ उसे गाड़ी तक पहुँचाया।
“कोई कलाकार, कोई अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्ति ही हम सबका ऐसा मज़ाक़ उड़ा सकता,” करोड़पति को गाड़ी में बैठाते हुए प्रसन्नचित्त जेस्त्याकोव बड़बड़ाया। “मैं तो सचमुच आश्चर्यचकित हूँ, येगोर नीलिच! मैं हँसी नहीं रोक पा रहा, अब भी नहीं...हा-हा-हा...और हम-सब इतने उत्तेजित हो गये और गड़बड़ करने लगे! हा-हा-हा...आप विश्वास करें, मैं नाटक में भी इतना कभी नहीं हँसा! हास्य की इतनी गहराई! ज़ि‍न्दगी-भर यह अविस्मरणीय साँझ मुझे याद रहेगी!”
प्यातिगोरोव को विदा करने के बाद बुद्धिजीवी लोग प्रसन्न व आश्वस्त हो गये।
जेस्त्याकोव ने ख़ुशी से डींग मारी: “उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया! तो अब सब ठीक है, वह नाराज़ नहीं हैं।”
लम्बी साँस लेकर येवस्त्रत स्पिरिदोनिच बोला - “भगवान करे न हो! वह बदमाश है, ख़राब आदमी है, पर वह हमारा हितकारी है। हमें होशियारी बरतनी चाहिए!”
(1884)