Tuesday, October 24, 2017

चुनाव आयोग मोदी का हो न हो, शेषन वाला तो नहीं है'

अब तक देश का विश्वास लोकतंत्र में बना रहा है क्योंकि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और चुनावी प्रक्रिया की स्वतंत्रता को लेकर लोगों के मन में शक-शुबहा नहीं है.

ये विश्वास चुनाव आयोग के बेहतरीन ट्रैक रिकॉर्ड से कायम हुआ है, ख़ास तौर पर 1990 के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन की सख़्ती की वजह से. लेकिन आयोग के हालिया रवैए की वजह से सवालिया निशान लगे हैं.

गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख़ों के ऐलान में की जा रही देरी से एक निष्पक्ष संस्था के तौर पर आयोग की छवि पर धब्बा लगा है, अब तो कांग्रेस इस मामले को लेकर अदालत में चली गई है.

पीएम मोदी ने कहा है कि विपक्ष को मुख्य चुनाव आयुक्त के फ़ैसले पर सवाल उठाने का हक़ नहीं है. लेकिन वे शायद भूल गए कि उन्होंने 2002 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त का पूरा नाम ज़ोर देकर बोलते हुए उन पर आरोप लगाए थे, इससे पहले तक सभी लोग उन्हें जेएम लिंग्दोह के नाम से जानते थे.
तब सीएम नरेंद्र मोदी ने जेम्स माइकल लिंग्दोह परआरोप लगाया था कि वे ईसाई होने की वजह से एक दूसरी ईसाई सोनिया गांधी की मदद करने के लिए गुजरात में चुनाव टाल रहे हैं. इस पर लिंग्दोह ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि "कुछ ओछे लोग बातें बनाते रहते हैं जिन्होंने एथिस्ट (नास्तिक) शब्द नहीं सुना."

बहरहाल, चुनाव आयोग का निष्पक्ष होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है उसका सरकारी दबाव से मुक्त दिखना, वरना लोग यक़ीन कैसे कर सकेंगे कि ये स्वतंत्र संस्था किसी भी सरकार की सत्ता में हर हाल में बने रहने की कोशिशों में मददगार नहीं होगी.

ईवीएम पर शक और आयोग

इस साल मार्च में लगे ईवीएम हैकिंग के आरोपों पर चुनाव आयोग का रवैया जनता के विश्वास को मज़बूत करने वाला तो क़तई नहीं माना जा सकता.

आयोग मशीन में गड़बड़ी की आशंका को जड़ से ख़त्म करने के बदले बार-बार यही दोहराता रहा कि ईवीएम को हैक नहीं किया जा सकता जबकि आम आदमी पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज ने विधानसभा में ईवीएम जैसी मशीन को हैक करके दिखाया था.

ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप नए नहीं हैं, भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी 2009 में ईवीएम को लेकर आशंकाएँ जता चुके हैं, भाजपा के ही सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी तो इस मामले में आयोग को 2011 में अदालत में चुनौती दे चुके हैं.

चुनाव आयोग ने इस साल के विवाद को लंबे समय तक चलने दिया. हैकिंग करके दिखाने की चुनौती को लेकर उसने जैसा रवैया अपनाया उससे शंकाएँ गहरी ही हुईं, आयोग चुनौती देने वालों के सामने तरह-तरह की शर्तें लगाकर रुकावटें पैदा करता दिखा, न कि पारदर्शिता और स्पष्टता से मामले को निबटाता हुआ.

विधानसभा चुनावों के बाद विवाद उठा था और दो महीने बाद 12 मई को तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम ज़ैदी ने कहा कि आगे से सभी चुनावों मेंवीवीपीएटी का इस्तेमाल (वोटर वेरिफ़ायड पेपर ऑडिट ट्रेल) किया जाएगा, छवि के धूमिल होने से पहले यही बात कहने से उन्हें कौन रहा था?

हैकिंग के आरोप अगर पूरी तरह बोगस भी थे तो चुनाव आयोग के रवैए की वजह से उसकी अपनी इमेज और चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता शक के दायरे में आ गई जो ख़ुद को शान से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाले देश के लिए बुरा है.

चुनाव आयुक्त एक संवैधानिक पद है, इस पद से सरकार किसी आयुक्त को महाभियोग लगाए बिना नहीं हटा सकती, ऐसा प्रावधान इसीलिए है ताकि चुनाव आयोग सरकार के दबाव से पूरी तरह मुक्त होकर काम कर सके.

शेषन और उनकी विरासत

1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त बने टीएन शेषन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गड़बड़ी और धांधली करने वालों के मन में डर पैदा किया. उन्होंने चुनाव में होने वाले ख़र्च पर सख़्ती की, अनेक कड़े और असरदार क़दम उठाने के अलावा, सबसे बड़ी बात ये कि उन्होंने चुनाव आयोग की स्वतंत्रता के मानक स्थापित किए.

शेषन के कार्यकाल में वीपी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री पद पर रहे, मगर शेषन ने किसी दल या नेता के प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई, उन्हें बड़बोला और आक्रामक कहा जा सकता है लेकिन उन्होंने चुनाव आयोग की सत्ता और शक्तियों को व्यावहारिक तौर पर इस्तेमाल किया.

इस साल अगस्त महीने में हुए राज्यसभा चुनाव मेंअहमद पटेल को विजेता घोषित किए जाने से पहले देर रात तक जैसा ड्रामा हुआ उसके बाद चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता दिखाते हुए सत्ता पक्ष के दबाव के बावजूद विपक्षी उम्मीदवार की जीत पर मुहर लगाई, मगर ये ज़रूर दिखा कि चुनाव आयोग का वो रुआब नहीं है जो शेषन के ज़माने में था.

शेषन ने इस बात को समझा था कि चुनाव आयोग का रोबदार होना और उसका ऐसा दिखना, लोकतंत्र के हित में बहुत ज़रूरी है लेकिन अभी तो आयोग की इस सफ़ाई पर ही कोई यक़ीन नहीं कर रहा है कि उस पर सरकार का कोई दबाव नहीं है.

हिमाचल में चुनाव की तारीख़ 12 अक्तूबर को घोषित की गई, लेकिन गुजरात का ऐलान टाल दिया गया, जबकि कुछ ही दिन पहले तक ऐसी चर्चा चल रही थी कि आयोग विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ करा सकता है.

विपक्ष का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ी लोक-लुभावन घोषणाएँ और उद्घाटन करने वाले थे, चुनाव की तारीख़ का ऐलान होते ही वे ऐसा नहीं कर पाते इसलिए घोषणा टाल दी गई, और ये भी कि जय शाह मामले पर विवाद छिड़ने से राज्य में राजनीतिक माहौल बीजेपी के हक़ में नहीं है इसलिए पार्टी हालात संभालने के लिए कुछ समय चाहती है.

चुनाव का ऐलान होते ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है, ये शेषन ही थे जिन्होंने पहली बार आचार संहिता को पूरी सख़्ती से लागू किया था.

आयोग के तर्क

गुजरात कैडर के आइएएस अधिकारी रहे मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोती 2013 तक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के मुख्य सचिव रहे थे इसलिए विपक्ष के आरोपों को बल मिला है, उन्होंने गुजरात की तारीखों का ऐलान न करने के जो तर्क दिए हैं वे भी काफ़ी दिलचस्प हैं.

जोती ने पहले कहा कि गुजरात और हिमाचल की भौगोलिक स्थिति और मौसम एक-दूसरे से अलग हैं इसलिए वहाँ एक साथ चुनाव कराने की बात बेमानीहै, लेकिन लोग पूछ रहे हैं कि जब इसी साल मार्च में मणिपुर और गोवा में एक साथ चुनाव कराए गए थे तो क्या उनकी भौगोलिक स्थिति और मौसम एक जैसे थे?

मुख्य चुनाव आयुक्त को सवालों से परे नहीं होना चाहिए जैसा पीएम चाहते हैं, बल्कि ज़रूरत है कि वह हर तरह के शक-शुबहे से परे हो, लेकिन यह पहला मौक़ा नहीं है, और न ही चुनाव आयोग पहली संस्था है जिसकी साख घटी है, आपको याद होगा नोटबंदी के मामले में रिज़र्व बैंक को कितनी ज़िल्लत का सामना करना पड़ा था.

प्रधानमंत्री मोदी इतिहास में चाहे जैसे भी याद किए जाएँ, लेकिन लोकतंत्र के लिए ज़रूरी संस्थाओं जैसे संसद, रिज़र्व बैंक या चुनाव आयोग को मज़बूत करने के लिए तो नहीं ही याद किए जाएँगे, हालांकि इस मामले में वे इंदिरा गांधी को कड़ी टक्कर देते दिख रहे हैं.


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