Saturday, January 13, 2018

विश्वविद्यालयों में शिक्षक पदों पर आरक्षण का दायरा अत्यन्त सीमित करने का यूजीसी का प्रस्ताव

उच्च शिक्षा-संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति के नियमों में एक बड़ा परिवर्तन करने का प्रस्ताव, यूजीसी ने मानव संसाधन मंत्रालय को भेजा है। यदि इस प्रस्ताव को मंत्रालय की स्वीकृति मिल जाती है, तो विश्वविद्यालयों और उससे संबंद्ध कॉलेजों में एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित होने वाले फैकल्टी पदों में भारी कमी हो जायेगी। यूजीसी का प्रस्ताव यह है कि विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू करते समय पूरे विश्वविद्यालय को इकाई मानने की जगह अलग-अलग विषयों के विभाग को इकाई माना जाय। अभी तक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पूरे विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाता था।


यूजीसी के इस प्रस्ताव को यूजीसी से अनुदान प्राप्त 41  केंद्रीय विश्वविद्यालयों में रिक्त पड़े 5 हजार 997 पदों पर होने वाली नियुक्तियों से जोड़ कर देखा जा रहा है। ये पद कुल पदों के 35 प्रतिशत हैं, जिनमें जल्दी नियुक्तियां होने वाली हैं। यदि विश्वविद्यालयों को इकाई मानने का नियम जारी रहता है तो कम-से-कम 3 हजार के आसपास पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी समुदायों सेे आने वाले शिक्षकों को नियुक्त करना बाध्यता होती। यदि विभाग को इकाई मानने का यूजीसी का नया प्रस्ताव लागू होता है, तो इन समुदायों के नहीं के बराबर शिक्षक नियुक्त होंगे। शिक्षा जगत, समाज और विशेष तौर पर बुहजन पर इसका कितना गंभीर और दूरगामी असर पड़ेगा, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। इन लगभग 6 हजार पदों में 2 हजार 457 पद असिस्टेंट प्रोफेसर, 2 हजार 217 एसोसिएट प्रोफेसर और 1 हजार 98 पद प्रोफेसर के हैं।

यदि विभागों को इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाता है, इसका क्या असर पडेगा, इस संदर्भ में भारत सरकार में पूर्व सचिव और इस मामले के विशेषज्ञ पी.एस. कृष्णनन ने ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा कि इसके चलते इन संस्थानों में एसस-एसटी और ओबीसी की शिक्षकों की संख्या अत्यन्त कम हो जायेगी। ज्ञातव्य है कि वैसे भी उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षित समुदायों के शिक्षकों की संख्या अत्यन्त कम है, खासकर प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर (रीडर) के पदों पर। इस संदर्भ में दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर  में हिंदी विभाग के प्रोफेसर कमलेश गु्प्त आंकडों का हवाला देकर बताते  हैं कि उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और कुलपति के रूप में एससी-एसटी और ओबीसी समुदाय के लोगों की संख्या अत्यन्त सीमित है।


यूजीसी द्वारा प्रस्तावित इस नई प्रक्रिया को सत्यवती कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर रविंद्र गोयल चोर दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की प्रक्रिया मानते हैं। उनका कहना है कि सरकारों की यह हिम्मत तो नहीं है कि वे संवैधानिक तौर पर आरक्षण को खत्म कर सके, इसलिए वे ऐसे तरीके निकाल रही हैं जिससे आरक्षण व्यवहारिक तौर पर खत्म हो जाय या अत्यन्त नगण्य हो जाय। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक नेता और एकेडमिक काउंसिल के चुने सदस्य शशिशेखर सिंह कहते हैं कि असल में यदि यूजीसी का यह प्रस्ताव लागू हो जाता है तो, विभिन्न विश्वविद्यालयों में बहुत सारे ऐसे विभाग होंगे, जहां एक पद भी आरक्षित श्रेणी के लिए नहीं होगा।

दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग के प्रोफेसर चन्द्रभूषण गु्प्ता इसे आज के राजनीतिक हालातों से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि पिछलों वर्षों में, खासकर 2014 के बाद राजनीति में उच्च-जातीय मानसिकता के संगठनों और व्यक्तियों का प्रभाव काफी बढ़ गया, वे आरक्षण को कभी सीधी चुनौती देते हैं तो कभी पिछले दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की कोशिश करते हैं। यूजीसी का यह प्रस्ताव इसी की एक कड़ी है। उच्च-शिक्षा संस्थाओं से दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के शिक्षकों को बाहर करने का उद्देश्य इन ज्ञान-विज्ञान के बौद्धिक केंद्रों पर उच्च-जातियों के पूर्ण वर्चस्व का रास्ता फिर से खोलना है।

अपने इस नए प्रस्ताव का आधार यूजीसी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय को बनाया है, जिसमें न्यायालय ने कहा है कि आरक्षण की इकाई समग्र विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि विभाग होना चाहिए। न्यायालय के इस निर्णय को आज की राजनीति से जोड़ते हुए उत्तर प्रदेश एससी-एसटी और अन्य पिछड़़ा वर्ग आरक्षण संघर्ष समिति के संयोजक दुर्गा प्रसाद यादव कहते हैं कि आरक्षित वर्गों का संघर्ष कमजोर पड़ा है, उच्च जातियों का चौतरफा वर्चस्व बढ़ा है, इसमें न्यायालय भी शामिल है। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय का एससी-एसटी और ओबीसी पर पड़ने वाले प्रभाव के उदाहरण के रूप में हाल में स्थापित सिद्धार्थ विश्वविद्यालय को लेते हैं। वे बताते हैं कि इस विश्वविद्यालय में विभागों को इकाई मानकर असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के कुल 84 पद विज्ञापित किये गये, 

Tuesday, January 9, 2018

दलित गौरव की बात सवर्ण हिंदुओं के लिए तकलीफ़देह क्यों ?


भारत संतरे की तरह रहा है, ऊपर से एक, भीतर अनेक फाँकें.

'अनेकता में एकता', 'फूल हैं अनेक किंतु माला फिर एक है', 'विविधता ही हमारी शक्ति है'...ऐसे नारे उन अक्लमंद लोगों ने गढ़े थे जो चाहते थे कि संतरा एक रहे, वे जानते थे कि भारत में सदियों से तरह-तरह के लोग बिना झगड़े साथ रहते आए हैं.

वे जानते थे कि ये एक मामूली संतरा नहीं है, इसकी सारी फाँकें अलग-अलग तो हैं ही, अलग-अलग आकार-प्रकार की भी हैं, उनके दुख-सुख और चाहत-नफ़रत एक नहीं हैं. कोई फाँक रस से भरी, कोई सूखी और कोई बहुत बड़ी, तो कोई बहुत छोटी है.

उनके सामने चुनौती थी आज़ाद भारत में तमाम विरोधाभासों के बावजूद एक नई शुरुआत करने की. उन्हें पता था कि इतिहास को पीछे जाकर ठीक नहीं किया जा सकता.

उनका इरादा देश को 'रिवर्स गियर' में चलाने का या इतिहास को बैकडेट से अपने जातीय-नस्ली-सांप्रदायिक स्वाभिमान के हिसाब से दोबारा लिखने का नहीं, बल्कि तरक्क़ी की इबारत लिखने का था.

बिना इंसाफ़ के अमन कब, कहां हुआ?

उन्होंने ग़ैर-बराबरी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण को ईश्वरीय न्याय मानने वाले समाज में 'एक वोट, समान अधिकार, सबकी सरकार' जैसा क्रांतिकारी विचार रखा, वो भी ऐसे दौर में जब इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बन चुका था और भारत में संविधान की जगह मनुस्मृति को क़ानून बनाने की माँग उठ रही थी.

मगर इसके बाद जो 'लेकिन' आता है, वो बहुत बड़ा लेकिन है, भारत की एकता की बात तो अच्छी है 'लेकिन' बिना इंसाफ़ के अमन कब हुआ है, कहाँ हुआ है?

मुसलमानों ने अपना देश ले लिया तो हिंदुओं को भी अपना एक देश मिलना चाहिए जिसे वे क़ानून से नहीं, धर्म से चला सकें, उनकी नज़र में यह वो इंसाफ़ था, जो नहीं हो पाया. इस्लामी पाकिस्तान जैसा बना सब देख रहे हैं, हिंदू भारत का विज़न उससे कोई अलग नहीं है.

आंबेडकर मानते थे कि अगर हिंदू भारत बना तो वह दलितों के लिए अंगरेज़ी राज के मुक़ाबले कहीं अधिक क्रूर होगा, उन्होंने बीसियों बार इस आशंका के प्रति आगाह किया है.

पैदाइश की बुनियाद पर होने वाले अपमान-अन्याय-अत्याचार को धर्म और संस्कृति मानना, उन्हें सामान्य नियम बताकर उनका पालन करना, और पालन न करने वालों को 'दंडित' करना, ये सब संविधान और क़ानूनों के बावजूद आज भी सनातन चलन में है.

संघ का हिंदुत्व और दलित चुनौती

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से हिंदू एकता का हिमायती रहा है, वह जातियों में बँटे हिंदुओं को एकीकृत राजनीतिक शक्ति बनाना चाहता है ताकि वैसा हिंदू राष्ट्र बन सके जो उनकी सबल, स्वाभिमानी और गौरवशाली राष्ट्र की कल्पना है.

संघ को दलितों का भी साथ चाहिए लेकिन वह हिंदू धर्म के वर्णाश्रम विधान के ख़िलाफ़ क़तई नहीं है, संघ से जुड़े अनेक शीर्ष 'विद्वानों' और नेताओं ने जाति पर आधारित व्यवस्थित अन्याय के लिए कभी अँगरेज़ों को, कभी मुसलमानों को ज़िम्मेदार बताया, लेकिन सामाजिक न्याय की ज़िम्मेदारी ख़ुद कभी स्वीकार नहीं की, बल्कि उनकी कोशिश जाति पर आधारित चिरंतन अन्याय को ही झुठलाने की रही.

भारत में सामाजिक अध्ययन की शीर्ष संस्था आइसीएसएसआर के प्रमुख बीबी कुमार मानते हैं कि सूअर खाने वाले लोगों को मुग़लों के अत्याचार ने दलित बना दिया वर्ना उसके पहले सभी बराबरी से मिल-जुल कर रहते थे, वे ये भी कहते हैं कि मनुस्मृति को अंगरेज़ों ने बिगाड़ दिया.

उना में दलितों की पिटाई, रोहित वेमुला की आत्महत्याकुछ ऐसे हालिया मामले हैं जिन पर संघ ने मौन को बेहतर माना या फिर इन घटनाओं का प्रतिकार करने वालों पर जातिवादी होने का ठप्पा लगाया.

रोहित दलित था या नहीं, इसमें मामले को उलझाना आसान था, लेकिन दलितों के साथ संस्थागत स्तर पर अन्याय होता आया है, और अब भी हो रहा है, ये मानना उनके लिए संभव नहीं है.

जातिवादी की आम परिभाषा ये है--जो व्यक्ति जाति के आधार पर ख़ुद को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझे वह जातिवादी है.

दलित कब से ख़ुद को श्रेष्ठ समझने लगे कि वे जातिवादी हो गए? जाति के आधार पर होने वाले अन्याय का प्रतिकार अगर जातिवाद है तो न्याय की गुंजाइश कहाँ है?

बहरहाल, सामाजिक न्याय की बात करने वाले सभी लोग संघ और भाजपा की नज़रों में जातिवादी रहे, जिन लोगों ने सामाजिक न्याय की राजनीतिक हिमायत की (लालू, मुलायम, मायावती वगैरह) उनकी करनी और बदनामी मूल मुद्दे को ही झटक देने के काम आई.

अमित शाह की दलितों के घर खाना खाने की रस्म-अदायगी, लेकिन जब सहारनपुर में राजपूतों से टकराव हो तो दलित नेता चंद्रशेखर पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाकर लंबे समय से जेल में रखना, दूसरी ओर नंगी तलवारें लेकर राणा प्रताप जयंती जुलूस के नाम पर हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ वैसी ही कार्रवाई न करना, उसी सनातन चलन का हिस्सा है.
क्या राष्ट्रनिर्माताओं और संघ दोनों की ग़लती एक जैसी?

इंसाफ़ के बिना अमन मुमकिन नहीं, तो क्या आंबेडकर-नेहरू-पटेल जैसे राष्ट्रनिर्माताओं ने दलितों पर हुए अत्याचार का हिसाब दुरुस्त किये बग़ैर सबके लिए समान अधिकार की व्यवस्था कर दी जो चलने वाली चीज़ नहीं थी क्योंकि अन्याय बरक़रार था.

ऐसा नहीं है, इसे समझते हुए सदियों के शोषण और ग़ैर-बराबरी को आगे के लिए ठीक करने की नीयत से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई ताकि दलित और पिछड़े देश की कहानी के अगले अध्याय में किरदार अदा कर सकें.

'ईश्वरीय व्यवस्था' के मुक़ाबले यही एक मानवीय व्यवस्था है जो काफ़ी हद तक कारगर रही है.

लेकिन उसी आरक्षण व्यवस्था को ख़त्म करने की बात संघ और बीजेपी के अंदर से अक्सर उठती रही है, बिहार चुनाव से पहले मोहन भागवत ने ऐसा ही बयान दिया था, हालांकि चुनावी हिसाब लगाने के बाद नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा था कि "मैं जान देकर भी आरक्षण की रक्षा करूँगा."

कुछ ही दिनों पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर ने कहा कि अब देश का राष्ट्रपति एक दलित व्यक्ति है, प्रधानमंत्री ख़ुद पिछड़े तबके से आते हैं इसलिए आरक्षण समाप्त कर दिया जाना चाहिए, यानी सदियों चले आ रहे जातीय शोषण, जो अब भी जारी है, उसका हिसाब बराबर मान लिया जाए.

भाजपा के केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े कह चुके हैं कि उनकी पार्टी सत्ता में संविधान को बदलने के लिए आई है हालाँकि संसद में हंगामे के बाद मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया लेकिन देश के समतामूलक संविधान पर संघ की आपत्तियाँ अनगिनत मौक़ों पर दर्ज हुई हैं.
संघ का प्रिय नारा 'समरसता' का है, यानी देश के सभी लोग हिंदुत्व के रंग में रंग जाएँ, लेकिन जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए शोषण को ख़त्म किए बिना समरसता कैसे हो सकती है?

संघ का दावा है कि उसके यहाँ जातिभेद जैसी कोई चीज़ नहीं है, लेकिन उसके 92 साल के इतिहास में सिर्फ़ एक ग़ैर-ब्राह्मण सरसंघचालक हुआ है, जो उत्तर प्रदेश के एक राजपूत राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जू भैया थे.

इस तथ्य का ज़िक्र करना जातिवादी मानसिकता से प्रेरित बताया जाता है लेकिन ऐसा करना जातिवाद नहीं है.

स्वाभिमान केवल सवर्ण ही खोजें, दूसरे नहीं?

झाँसी की रानी को नहीं, बल्कि पद्मावती को 'राष्ट्रमाता'भाजपा के एक राजपूत मुख्यमंत्री ने घोषित किया, तलवार भांजने वाले करणी सेना के राजपूतों को संघ और भाजपा का भरपूर साथ मिला.

गुजरात के गौरव का नारा ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगाया मानो गुजरात में पैदा हुए सारे लोग महान हैं और बाक़ी उनसे कमतर.

मेक इन इंडिया, विकास, स्किल्ड इंडिया, स्मार्ट सिटी जैसे नारों के हवा होने के बाद, भारत के जिस वैदिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक गौरव की पुनर्स्थापना इस सरकार के एजेंडा में सबसे ऊपर है उसमें ब्राह्मणों और राजपूतों के अलावा किसकी चर्चा है?
इस पर ग़ौर करिए, लेकिन ग़ौर करते ही आपजातिवादी घोषित कर दिए जाएँगे.

ये ज़रूर है कि वक़्त-ज़रूरत के हिसाब से अलग-अलग स्तर पर कभी पटेल, कभी दिनकर, कभी आंबेडकर, कभी बिरसा मुंडा, कभी कोई और याद तो किया जाता है लेकिन वो राष्ट्रीय नहीं, स्थानीय और तात्कालिक एजेंडा रहा है.

जब पूरे देश में विकास, न्याय, समता, शिक्षा और स्वास्थ्य के बदले जातीय-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय गौरव की राजनीति हो रही हो तो दलितों को क्यों रोका जाना चाहिए? 'आत्मसम्मान' दूसरों के लिए मूँछ का सवालहै, जबकि वह दलितों की वास्तविक ज़रूरत है.

कोरेगाँव भीमा की लड़ाई में 200 साल पहले ब्राह्मण-मराठा सेना को हराने की याद दलितों के दिल में गौरव पैदा करती है तो उन्हें ऐसा महसूस करने से देश का कौन-सा क़ानून रोक सकता है? उनके ख़िलाफ़ सत्ता की शक्ति का प्रयोग समरसता के नारे को और खोखला ही करेगा.

जो ख़ुद को राष्ट्रनायक समझते हैं, उनके चलाए फ़ैशन पर दूसरे अमल करें तो उन्हें खुशी का इज़हार करना चाहिए न कि पुलिस और मुकदमों का सहारा लेना चाहिए.

कोरेगांव-भीमा: क्या दलितों ने पेशवा को उखाड़ने के लिए की थी वो लड़ाई?

भीमा कोरेगांव में दलितों पर हुए कथित हमले के बाद महाराष्ट्र के कई इलाकों में विरोध-प्रदर्शन किए गये.


दलित समुदाय भीमा कोरेगांव में हर साल बड़ी संख्या में जुटकर उन दलितों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने 1817 में पेशवा की सेना के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपने प्राण गंवाये थे.


ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश सेना में शामिल दलितों (महार) ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों (पेशवा) को हराया था. बाबा साहेब अंबेडकर खुद 1927 में इन सैनिकों को श्रद्धांजलि देने वहां गए थे.

युद्ध की 200वीं वर्षगांठ

इस साल, इस उत्सव का आयोजन बड़े पैमाने पर किया गया क्योंकि यह युद्ध की 200वीं वर्षगांठ थी.

रिपोर्ट है कि हिंदुत्ववादी संगठन (समस्त हिंदू आघाडी, ऑल हिंदू फ्रंट) ने हिंसा फैलाने की शुरुआत की, जिसमें एक शख्स की मौत हो गयी जबकि बड़ी संख्या में वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया.

कोरेगांव में भड़की हिंसा के बाद क्या हुआ?

ठीक इसी समय दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने पेशवा शासन के मुख्यालय शनिवार वाडा (पुणे) में आयोजित एक रैली में भाजपा और संघ को आधुनिक पेशवा बताते हुए उनके ख़िलाफ़ लड़ने का आह्वाण किया.

भीमा कोरेगांव की लड़ाई आज प्रचलित कई मिथकों को तोड़ती हैं. अंग्रेज़ अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए इस लड़ाई में थे तो वहीं पेशवा अपने राज्य की रक्षा के प्रयास के लिए.

जैसा कि अंग्रेज़ अपने साम्राज्य को बढ़ाना चाहते थे तो उन्होंने बड़ी संख्या में दलितों को अपनी सेना में भर्ती किया था. इनमें महार, परायास और नमशुद्र कुछ नाम थे. इन वर्गों को उनकी वफादारी और आसान उपलब्धता के लिए भर्ती किया गया था.

सांप्रदायिक चश्मे से देखना चाहते हैं

पेशवा सेना के पास भाड़े के अरब सैनिकों के साथ ही गोस्वामी भी थे. यह हिंदू बनाम मुस्लिम युद्ध के मिथक को खारिज करता है, क्योंकि एक तरफ इब्राहिम ख़ान गारदी शिवाजी की सेना का हिस्सा थे तो दूसरी तरफ अरब सैनिक बाजीराव की सेना में शामिल थे.

दुर्भाग्य से आज हम उस घटना को सांप्रदायिक चश्मे से देखना चाहते हैं और उन राज्यों की अनदेखी कर रहे हैं जो सत्ता और धन लोलुप थे.

बाद में, अंग्रेज़ों ने दलित/महारों को नियुक्त करना बंद कर दिया क्योंकि निम्न पद पर कार्यरत उच्च जाति के सैनिक, दलित अधिकारियों की न तो बातें मानते और न ही उन्हें सलाम करते थे.

अंबेडकर की कोशिशें

आगे चलकर अंबेडकर ने प्रयास किया कि सेना में दलितों की भर्ती की जाये और उन्होंने सुझाव दिया कि इस समस्या को दूर करने के लिए महार रेजिमेंट का गठन होना चाहिए.

महार सैनिकों की बातें उठाना, समाज में दलितों का स्थान बनाने की अंबेडकर की कोशिशों के तहत था.

क्या भीमा कोरेगांव की लड़ाई उस समय दलितों ने पेशवाई को उखाड़ फेंकने के लिए की थी?

दलितों पर कठोर अत्याचार

यह सच है कि पेशवा शासन की नीतियां ब्राह्मणवादी थीं. शुद्रों को थूकने के लिए अपने गले में हांडी लटकाना जरूरी था, ताकि उनके नाक मुंह से गंदगी न फैले.

साथ ही कमर पर झाड़ू बांधना जरूरी था जिससे धरती पर पड़े उनके पैरों के निशान मिटते रहें.

यह दलितों पर कठोर अत्याचार के सबसे चरम बिंदु की ओर इशारा करता है.


दलितों के गीतों में ज़िंदा हैं अंबेडकर

दलितों पर कठोर अत्याचार

यह सच है कि पेशवा शासन की नीतियां ब्राह्मणवादी थीं. शुद्रों को थूकने के लिए अपने गले में हांडी लटकाना जरूरी था, ताकि उनके नाक मुंह से गंदगी न फैले.

साथ ही कमर पर झाड़ू बांधना जरूरी था जिससे धरती पर पड़े उनके पैरों के निशान मिटते रहें.

यह दलितों पर कठोर अत्याचार के सबसे चरम बिंदु की ओर इशारा करता है.

'बकरी चराने जैसी बात पर दलित बच्चियों से रेप'

हरियाणा के ये दलित वर्षों से हैं दर-बदर

सहारनपुर के दलितों की कई शिकायतें हैं और एक संगठन उन शिकायतों को आवाज़ दे रहा है.

अंग्रेज़ बाजीराव के ख़िलाफ़ क्यों लड़े?

क्या अंग्रेज़ ब्राह्मणवादी कठोरता को मिटाने के लिए बाजीराव के ख़िलाफ़ लड़े? बिल्कुल नहीं. वो केवल अपना व्यापार बढ़ाने और लूट की मंशा से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रहे थे.

ठीक इसी प्रकार महार सैनिक अपने मालिक के प्रति निष्ठा की भावना से अंग्रेज़ों के लिए लड़ रहे थे.

आधुनिक शिक्षा के प्रभाव के कारण सामाजिक सुधारों को बाद में उठाया गया. ब्रिटिश साम्राज्य के प्रशासन में मातहतों के प्रबंधन के लिए आधुनिक शिक्षा को आरम्भ किया गया था.

बाद में अंग्रेज़ों की लूट की नीति के परिणामस्वरूप सामाजिक सुधार ने जोर पकड़ा.

जहां तक अंग्रेज़ों का सवाल है तो उनकी नीतियों ने अनजाने में यहां की सामाजिक संरचनाओं को प्रभावित किया.

क्योंकि बदलते परिदृष्य में जाति के शोषण के प्रति चेतना को ज्योतिराव फुले ने आकार दिया.

दलितों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया सोचना बेतुका

यह सोचना भी बेतुका है कि पेशवा राष्ट्र के लिए लड़ रहे थे जबकि दलित अंग्रेज़ों का साथ दे रहे थे. राष्ट्रवाद की अवधारणा तो अंग्रेज़ी शासन के दौरान आयी. जो राष्ट्रवाद आया वो भी दो किस्म का था.

पहला, भारतीय राष्ट्रवाद उद्योपति, व्यापारियों, समाज के शिक्षित वर्गों और श्रमिकों के उभरते वर्ग के जरिये आया. दूसरा, मुस्लिम और हिंदू धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद, जो ज़मींदार और रियासतों के राजाओं से शुरू होता है.

क्यों बढ़ रहा दलितों में असंतोष?

पिछले कुछ सालों में वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण दलितों में असंतोष बढ़ रहा है.

इसके पीछे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या और ऊना में गौ रक्षक समिति के सदस्यों का दलित युवकों को बुरी तरह पीटने जैसी घटनाओं का होना शामिल है.

कोरेगांव में दलितों का बड़ी संख्या में जुटना अतीत से अपने आइकन की तलाश की इच्छा को दर्शाता है, और उन पर किया गया हमला उनकी महत्वकांक्षाओं को दबाने के उद्देश्य से किया गया है.




Monday, January 8, 2018

शर्म की बात पर ताली पीटना

मैं आजकल बड़ी मुसीबत में हूं।

मुझे भाषण के लिए अक्सर बुलाया जाता है। विषय यही होते हैं- देश का भविष्य, छात्र समस्या, युवा-असंतोष, भारतीय संस्कृति भी(हालांकि निमंत्रण की चिट्ठी में ‘संस्कृति’ अक्सर गलत लिखा होता है), पर मैं जानता हूं जिस देश में हिंदी-हिंसा आंदोलन भी जोरदार होता है, वहां मैं ‘संस्कृति’ की सही शब्द रचना अगर देखूं तो बेवकूफ के साथ ही ‘राष्ट्र-द्रोही’ भी कहलाऊंगा। इसलिए जहां तक बनता है, मैं भाषण ही दे आता हूं।

मजे की बात यह है कि मुझे धार्मिक समारोहों में भी बुला लिया जाता है। सनातनी, वेदान्ती, बौद्ध, जैन सभी बुला लेते हैं; क्योंकि इन्हें न धर्म से मतलब है, न संत से, न उसके उपदेश से। ये धर्मोपदेश को भी समझना नहीं चाहते। पर ये साल में एक-दो बार सफल समारोह करना चाहते हैं। और जानते हैं कि मुझे बुलाकर भाषण करा देने से समारोह सफल होगा, जनता खुश होगी और उनका जलसा कामयाब हो जाएगा।

मैं उनसे कह देता हूं- जितना लाइट और लाउडस्पीकरवालों को दोगे, कम से कम उतना मुझ गरीब शास्ता को दे देना- तो वे दे भी देते हैं। मुझे अगर लगे कि इनका इरादा कुछ गड़बड़ है तो मैं शास्ता विक्रयकर अधिकारी या थानेदार की भी सहायता ले लेता हूं। ये लोग पता नहीं क्यूं मेरे प्रति आत्मीयता का अनुभव करते हैं। इनके कारण सारा काम ‘धार्मिक’ और ‘पवित्र’ वातावरण में हो जाता है।

पर मेरी एक नयी मुसीबत पैदा हो गयी है। जब मैं ऐसी बात करता हूं जिस पर शर्म आनी चाहिए, तब उस पर लोग हंसकर ताली पीटने लगते हैं।

मैं एक संत की जयंती के समारोह में अध्यक्ष था। मैं जानता था कि बुलाने वाले लोग मुझसे भीतर से बहुत नाराज रहते हैं। यह भी जानता हूं कि ये मुझे गंदी-गंदी गालियां देते हैं, क्योंकि राजनीति और समाज के मामले में मैं मुंहफट हो जाता हूं। तब सुनने वालों का दीन क्रोध बड़ा मजा देता है। पर उस शाम मेरे गले में वही लोग मालाएं डाल रहे थे- यह अच्छी और उदात्त बात भी हो सकती है। पर मैं जानता था कि ये मेरे व्यंग्य, हास्य और कटु उक्तियों का उपयोग करके उन तीन-चार हजार श्रोताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं- याने आयोजन सफल करना चाहते हैं- याने बेवकूफ बनाना चाहते हैं।

जयन्ती एक क्रांतिकारी संत की थी। ऐसे संत की जिसने कहा- खुद सोचो। सत्य के अनेक कोंण होते हैं। हर बात में ‘शायद’ का ध्यान जरूर रखना चाहिए। महावीर और बुद्ध ऐसे संत हुए, जिन्होने कहा- सोचो। शंका करो। प्रश्न करो। तब सत्य को पहचानो। जरूरी नहीं कि वही शाश्वत सत्य है, जो कभी किसी ने लिख दिया था।
ये संत वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे। और जब तक इन संतों के विचारों का प्रभाव रहा तब तक विज्ञान की उन्नति भारत में हुई। भौतिक और रासायनिक विज्ञान की शोध हुई। चिकित्सा विज्ञान की शोध हुई। नागार्जुन हुए, बाणभट्ट हुए। इसके बाद लगभग डेढ़ शताब्दी में भारत के बड़े से बड़े दिमाग ने यही काम किया कि सोचते रहे- ईश्वर एक हैं या दो हैं, या अनेक हैं। हैं तो सूक्ष्म हैं या स्थूल। आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है। इसके साथ ही केवल काव्य रचना।

विज्ञान नदारद। गल्ला कम तौलेंगे, मगर द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, मुक्ति और पुनर्जन्म के बारे में बड़े परेशान रहेंगे। कपड़ा कम नापेंगे, दाम ज्यादा लेंगे, पर पंच आभूषण के बारे में बड़े जाग्रत रहेंगे।

झूठे आध्यात्म ने इस देश को दुनिया में तारीफ दिलवायी, पर मनुष्य को मारा और हर डाला, उस धार्मिक संत-समारोह में मैं अध्यक्ष के आसन पर था। बायें तरफ दो दिगंबर मुनि बैठे थे। दाहिने तरफ दो श्वेतांबर। चार मुनियों से घिरा यह दीन लेखक बैठा था। पर सही बात यह है कि ‘होल टाइम’ मुनि या तपस्वी बड़ा दयनीय प्रणी होता है। वह सार्थकता का अनुभव नहीं करता, कर्म नहीं खोज पाता। श्रद्धा जरूर लेता है- मगर ज्यादा कर्महीन श्रद्धा ज्ञानी को बहुत ‘बोर’ करती है।

दिगंबर मुनि और श्वेतांबर मुनि आपस में कैसे देख रहे थे, यह मैं जांच रहा था। लेखक की दो नहीं सौ आंखें होती हैं। दिगंबर अपने को सर्वहारा का मुनि मानता है और श्वेतांबर मुनि को संपन्न समाज का। यह मैं समझ गया- उनके तेवर से।

मैंने आरंभ में कहा भी- “सभ्यता के विकास का क्रम होता है। जब हेण्डलूम, पावरलूम, कपड़ा मिल नहीं थी तब विश्व के हर समाज का ऋषि और शास्ता कम से कम कपड़े पहनता था; क्योंकि जो भी अच्छे कपड़े बन पाते थे, उन्हें सामंत वर्ग पहनता था। तब लंगोटी लगाना या नंगा रहना दुनिया भर में संत का आचार होता था।”

“पर अब हम फाइन से फाइन कपड़ा बनाते और बेचते हैं, पर अपने मुनियों को नंगा रखते हैं। यह भी क्या पाप नहीं है?”

मुनि मेरी बात सुनकर गंभीर हो गए और सोचने लगे, पर समारोह वाले हंसने और ताली पीटने लगे। और मैंने देखा एक मुनि उनके इस ओछे व्यवहार से खिन्न हैं। मैंने सोचा कि मुनि से कहूं कि हम दोनों मिलकर सिर पीट लें। शर्म की बात पर जिस समाज के लोगों को हंसी आये- इस बात पर मुनि और ‘साधु’ दोनों रो लें।

पर इसके बाद जब मुनि बोले तो उन्होंने घोर हिंसा की शैली में अहिंसा समझायी। कुछ शब्द मुझे अभी भी याद हैं, “पाखण्डियों, क्या संत को सर्टिफिकेट देने का समारोह करते हो? तुम्हारे सर्टिफिकेट से संत को कोई परमिट या नौकरी मिल जाएगी? पाप की कमाई खाते हो। झूठ बोलते हो। सत्य की बात करते हो। बेईमानी से परिग्रह करते हो। बताओ ये चार-पांच मंजिलों की इमारतें क्या सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह से बनी हैं?”

मैं दंग रह गया। मुनि का चेहरा लाल था क्रोध से। वे किसी सच्चे क्रांतिकारी की तरह बोल रहे थे; क्योंकि उन्होंने शरीर ढांकने को कपड़ा लेने का किसी से अहसान नहीं लेना था।
सभा में सन्नाटा।

लगातार सन्नाटा।

और मुनि पूसे क्रोध के साथ सारी बनावट और फरेब को नंगा कर रहे थे।

अंत में मुझे अध्यक्षीय भषण देना लाजिमी था। मैं देख रहा था कि तीस-चालीस साल के गुट में युवक लोग पांच-छ: ठिकानों पर बैठे इंतजार कर रहे थे कि मैं क्या कहता हूं।

मैंने बहुत छोटा धन्यवाद जैसा भाषण दिया। मुनियों और विद्वानों का आभार माना और अंत में कहा- “एक बात मैं आपके सामने स्वीकार करना चाहता हूं। मैंने और आपने तीन घंटे ऊंचे आदर्शों की, सदाचरण की, प्रेम की, दया की बातें सुनीं। पर मैं आपके सामने साफ कहता हूं कि तीन घंटे पहले जितना कमीना और बेईमान मैं था, उतना ही अब भी हूं। मेरी मैंने कह दी। आप लोगों की आप लोग जानें।”

इस पर भी क्या हुआ- हंसी खूब हुई और तालियां पिटीं।

उन्हें मजा आ गया।

एक और बड़े लोगों के क्लब में मैं भाषण दे रहा था। मैं देश की गिरती हालत, महंगाई, गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार पर बोल रहा था और खूब बोल रहा था।

मैं पूरी पीड़ा से, गहरे आक्रोश से बोल रहा था। पर जब मैं ज्यादा मार्मिक हो जाता, वे लोग तालियां पीटते थे। मैंने कहा- हम लोग बहुत पतित हैं। तो वे ताली पीटने लगे।

उन्हे मजा आ रहा था और शाम एक अच्छे भाषण से सफल हो रही थी।

और मैं इन समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूं, तो सोचता रहता हूं कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसें और ताली पीटें, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है?

होगा शायद। पर तभी होगा, जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबड़े टूटेंगे।