भारत संतरे की तरह रहा है, ऊपर से एक, भीतर अनेक फाँकें.
'अनेकता में एकता', 'फूल हैं अनेक किंतु माला फिर एक है', 'विविधता ही हमारी शक्ति है'...ऐसे नारे उन अक्लमंद लोगों ने गढ़े थे जो चाहते थे कि संतरा एक रहे, वे जानते थे कि भारत में सदियों से तरह-तरह के लोग बिना झगड़े साथ रहते आए हैं.
वे जानते थे कि ये एक मामूली संतरा नहीं है, इसकी सारी फाँकें अलग-अलग तो हैं ही, अलग-अलग आकार-प्रकार की भी हैं, उनके दुख-सुख और चाहत-नफ़रत एक नहीं हैं. कोई फाँक रस से भरी, कोई सूखी और कोई बहुत बड़ी, तो कोई बहुत छोटी है.
उनके सामने चुनौती थी आज़ाद भारत में तमाम विरोधाभासों के बावजूद एक नई शुरुआत करने की. उन्हें पता था कि इतिहास को पीछे जाकर ठीक नहीं किया जा सकता.
उनका इरादा देश को 'रिवर्स गियर' में चलाने का या इतिहास को बैकडेट से अपने जातीय-नस्ली-सांप्रदायिक स्वाभिमान के हिसाब से दोबारा लिखने का नहीं, बल्कि तरक्क़ी की इबारत लिखने का था.
बिना इंसाफ़ के अमन कब, कहां हुआ?
उन्होंने ग़ैर-बराबरी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण को ईश्वरीय न्याय मानने वाले समाज में 'एक वोट, समान अधिकार, सबकी सरकार' जैसा क्रांतिकारी विचार रखा, वो भी ऐसे दौर में जब इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बन चुका था और भारत में संविधान की जगह मनुस्मृति को क़ानून बनाने की माँग उठ रही थी.
मगर इसके बाद जो 'लेकिन' आता है, वो बहुत बड़ा लेकिन है, भारत की एकता की बात तो अच्छी है 'लेकिन' बिना इंसाफ़ के अमन कब हुआ है, कहाँ हुआ है?
मुसलमानों ने अपना देश ले लिया तो हिंदुओं को भी अपना एक देश मिलना चाहिए जिसे वे क़ानून से नहीं, धर्म से चला सकें, उनकी नज़र में यह वो इंसाफ़ था, जो नहीं हो पाया. इस्लामी पाकिस्तान जैसा बना सब देख रहे हैं, हिंदू भारत का विज़न उससे कोई अलग नहीं है.
आंबेडकर मानते थे कि अगर हिंदू भारत बना तो वह दलितों के लिए अंगरेज़ी राज के मुक़ाबले कहीं अधिक क्रूर होगा, उन्होंने बीसियों बार इस आशंका के प्रति आगाह किया है.
पैदाइश की बुनियाद पर होने वाले अपमान-अन्याय-अत्याचार को धर्म और संस्कृति मानना, उन्हें सामान्य नियम बताकर उनका पालन करना, और पालन न करने वालों को 'दंडित' करना, ये सब संविधान और क़ानूनों के बावजूद आज भी सनातन चलन में है.
संघ का हिंदुत्व और दलित चुनौती
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से हिंदू एकता का हिमायती रहा है, वह जातियों में बँटे हिंदुओं को एकीकृत राजनीतिक शक्ति बनाना चाहता है ताकि वैसा हिंदू राष्ट्र बन सके जो उनकी सबल, स्वाभिमानी और गौरवशाली राष्ट्र की कल्पना है.
संघ को दलितों का भी साथ चाहिए लेकिन वह हिंदू धर्म के वर्णाश्रम विधान के ख़िलाफ़ क़तई नहीं है, संघ से जुड़े अनेक शीर्ष 'विद्वानों' और नेताओं ने जाति पर आधारित व्यवस्थित अन्याय के लिए कभी अँगरेज़ों को, कभी मुसलमानों को ज़िम्मेदार बताया, लेकिन सामाजिक न्याय की ज़िम्मेदारी ख़ुद कभी स्वीकार नहीं की, बल्कि उनकी कोशिश जाति पर आधारित चिरंतन अन्याय को ही झुठलाने की रही.
भारत में सामाजिक अध्ययन की शीर्ष संस्था आइसीएसएसआर के प्रमुख बीबी कुमार मानते हैं कि सूअर खाने वाले लोगों को मुग़लों के अत्याचार ने दलित बना दिया वर्ना उसके पहले सभी बराबरी से मिल-जुल कर रहते थे, वे ये भी कहते हैं कि मनुस्मृति को अंगरेज़ों ने बिगाड़ दिया.
उना में दलितों की पिटाई, रोहित वेमुला की आत्महत्याकुछ ऐसे हालिया मामले हैं जिन पर संघ ने मौन को बेहतर माना या फिर इन घटनाओं का प्रतिकार करने वालों पर जातिवादी होने का ठप्पा लगाया.
रोहित दलित था या नहीं, इसमें मामले को उलझाना आसान था, लेकिन दलितों के साथ संस्थागत स्तर पर अन्याय होता आया है, और अब भी हो रहा है, ये मानना उनके लिए संभव नहीं है.
जातिवादी की आम परिभाषा ये है--जो व्यक्ति जाति के आधार पर ख़ुद को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझे वह जातिवादी है.
दलित कब से ख़ुद को श्रेष्ठ समझने लगे कि वे जातिवादी हो गए? जाति के आधार पर होने वाले अन्याय का प्रतिकार अगर जातिवाद है तो न्याय की गुंजाइश कहाँ है?
बहरहाल, सामाजिक न्याय की बात करने वाले सभी लोग संघ और भाजपा की नज़रों में जातिवादी रहे, जिन लोगों ने सामाजिक न्याय की राजनीतिक हिमायत की (लालू, मुलायम, मायावती वगैरह) उनकी करनी और बदनामी मूल मुद्दे को ही झटक देने के काम आई.
अमित शाह की दलितों के घर खाना खाने की रस्म-अदायगी, लेकिन जब सहारनपुर में राजपूतों से टकराव हो तो दलित नेता चंद्रशेखर पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाकर लंबे समय से जेल में रखना, दूसरी ओर नंगी तलवारें लेकर राणा प्रताप जयंती जुलूस के नाम पर हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ वैसी ही कार्रवाई न करना, उसी सनातन चलन का हिस्सा है.
क्या राष्ट्रनिर्माताओं और संघ दोनों की ग़लती एक जैसी?
इंसाफ़ के बिना अमन मुमकिन नहीं, तो क्या आंबेडकर-नेहरू-पटेल जैसे राष्ट्रनिर्माताओं ने दलितों पर हुए अत्याचार का हिसाब दुरुस्त किये बग़ैर सबके लिए समान अधिकार की व्यवस्था कर दी जो चलने वाली चीज़ नहीं थी क्योंकि अन्याय बरक़रार था.
ऐसा नहीं है, इसे समझते हुए सदियों के शोषण और ग़ैर-बराबरी को आगे के लिए ठीक करने की नीयत से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई ताकि दलित और पिछड़े देश की कहानी के अगले अध्याय में किरदार अदा कर सकें.
'ईश्वरीय व्यवस्था' के मुक़ाबले यही एक मानवीय व्यवस्था है जो काफ़ी हद तक कारगर रही है.
लेकिन उसी आरक्षण व्यवस्था को ख़त्म करने की बात संघ और बीजेपी के अंदर से अक्सर उठती रही है, बिहार चुनाव से पहले मोहन भागवत ने ऐसा ही बयान दिया था, हालांकि चुनावी हिसाब लगाने के बाद नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा था कि "मैं जान देकर भी आरक्षण की रक्षा करूँगा."
कुछ ही दिनों पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर ने कहा कि अब देश का राष्ट्रपति एक दलित व्यक्ति है, प्रधानमंत्री ख़ुद पिछड़े तबके से आते हैं इसलिए आरक्षण समाप्त कर दिया जाना चाहिए, यानी सदियों चले आ रहे जातीय शोषण, जो अब भी जारी है, उसका हिसाब बराबर मान लिया जाए.
भाजपा के केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े कह चुके हैं कि उनकी पार्टी सत्ता में संविधान को बदलने के लिए आई है हालाँकि संसद में हंगामे के बाद मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया लेकिन देश के समतामूलक संविधान पर संघ की आपत्तियाँ अनगिनत मौक़ों पर दर्ज हुई हैं.
संघ का प्रिय नारा 'समरसता' का है, यानी देश के सभी लोग हिंदुत्व के रंग में रंग जाएँ, लेकिन जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए शोषण को ख़त्म किए बिना समरसता कैसे हो सकती है?
संघ का दावा है कि उसके यहाँ जातिभेद जैसी कोई चीज़ नहीं है, लेकिन उसके 92 साल के इतिहास में सिर्फ़ एक ग़ैर-ब्राह्मण सरसंघचालक हुआ है, जो उत्तर प्रदेश के एक राजपूत राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जू भैया थे.
इस तथ्य का ज़िक्र करना जातिवादी मानसिकता से प्रेरित बताया जाता है लेकिन ऐसा करना जातिवाद नहीं है.
स्वाभिमान केवल सवर्ण ही खोजें, दूसरे नहीं?
झाँसी की रानी को नहीं, बल्कि पद्मावती को 'राष्ट्रमाता'भाजपा के एक राजपूत मुख्यमंत्री ने घोषित किया, तलवार भांजने वाले करणी सेना के राजपूतों को संघ और भाजपा का भरपूर साथ मिला.
गुजरात के गौरव का नारा ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगाया मानो गुजरात में पैदा हुए सारे लोग महान हैं और बाक़ी उनसे कमतर.
मेक इन इंडिया, विकास, स्किल्ड इंडिया, स्मार्ट सिटी जैसे नारों के हवा होने के बाद, भारत के जिस वैदिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक गौरव की पुनर्स्थापना इस सरकार के एजेंडा में सबसे ऊपर है उसमें ब्राह्मणों और राजपूतों के अलावा किसकी चर्चा है?
इस पर ग़ौर करिए, लेकिन ग़ौर करते ही आपजातिवादी घोषित कर दिए जाएँगे.
ये ज़रूर है कि वक़्त-ज़रूरत के हिसाब से अलग-अलग स्तर पर कभी पटेल, कभी दिनकर, कभी आंबेडकर, कभी बिरसा मुंडा, कभी कोई और याद तो किया जाता है लेकिन वो राष्ट्रीय नहीं, स्थानीय और तात्कालिक एजेंडा रहा है.
जब पूरे देश में विकास, न्याय, समता, शिक्षा और स्वास्थ्य के बदले जातीय-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय गौरव की राजनीति हो रही हो तो दलितों को क्यों रोका जाना चाहिए? 'आत्मसम्मान' दूसरों के लिए मूँछ का सवालहै, जबकि वह दलितों की वास्तविक ज़रूरत है.
कोरेगाँव भीमा की लड़ाई में 200 साल पहले ब्राह्मण-मराठा सेना को हराने की याद दलितों के दिल में गौरव पैदा करती है तो उन्हें ऐसा महसूस करने से देश का कौन-सा क़ानून रोक सकता है? उनके ख़िलाफ़ सत्ता की शक्ति का प्रयोग समरसता के नारे को और खोखला ही करेगा.
जो ख़ुद को राष्ट्रनायक समझते हैं, उनके चलाए फ़ैशन पर दूसरे अमल करें तो उन्हें खुशी का इज़हार करना चाहिए न कि पुलिस और मुकदमों का सहारा लेना चाहिए.
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