उच्च शिक्षा-संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति के नियमों में एक बड़ा परिवर्तन करने का प्रस्ताव, यूजीसी ने मानव संसाधन मंत्रालय को भेजा है। यदि इस प्रस्ताव को मंत्रालय की स्वीकृति मिल जाती है, तो विश्वविद्यालयों और उससे संबंद्ध कॉलेजों में एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित होने वाले फैकल्टी पदों में भारी कमी हो जायेगी। यूजीसी का प्रस्ताव यह है कि विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू करते समय पूरे विश्वविद्यालय को इकाई मानने की जगह अलग-अलग विषयों के विभाग को इकाई माना जाय। अभी तक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पूरे विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाता था।
यूजीसी के इस प्रस्ताव को यूजीसी से अनुदान प्राप्त 41 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में रिक्त पड़े 5 हजार 997 पदों पर होने वाली नियुक्तियों से जोड़ कर देखा जा रहा है। ये पद कुल पदों के 35 प्रतिशत हैं, जिनमें जल्दी नियुक्तियां होने वाली हैं। यदि विश्वविद्यालयों को इकाई मानने का नियम जारी रहता है तो कम-से-कम 3 हजार के आसपास पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी समुदायों सेे आने वाले शिक्षकों को नियुक्त करना बाध्यता होती। यदि विभाग को इकाई मानने का यूजीसी का नया प्रस्ताव लागू होता है, तो इन समुदायों के नहीं के बराबर शिक्षक नियुक्त होंगे। शिक्षा जगत, समाज और विशेष तौर पर बुहजन पर इसका कितना गंभीर और दूरगामी असर पड़ेगा, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। इन लगभग 6 हजार पदों में 2 हजार 457 पद असिस्टेंट प्रोफेसर, 2 हजार 217 एसोसिएट प्रोफेसर और 1 हजार 98 पद प्रोफेसर के हैं।
यदि विभागों को इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाता है, इसका क्या असर पडेगा, इस संदर्भ में भारत सरकार में पूर्व सचिव और इस मामले के विशेषज्ञ पी.एस. कृष्णनन ने ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा कि इसके चलते इन संस्थानों में एसस-एसटी और ओबीसी की शिक्षकों की संख्या अत्यन्त कम हो जायेगी। ज्ञातव्य है कि वैसे भी उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षित समुदायों के शिक्षकों की संख्या अत्यन्त कम है, खासकर प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर (रीडर) के पदों पर। इस संदर्भ में दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर में हिंदी विभाग के प्रोफेसर कमलेश गु्प्त आंकडों का हवाला देकर बताते हैं कि उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और कुलपति के रूप में एससी-एसटी और ओबीसी समुदाय के लोगों की संख्या अत्यन्त सीमित है।
यूजीसी द्वारा प्रस्तावित इस नई प्रक्रिया को सत्यवती कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर रविंद्र गोयल चोर दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की प्रक्रिया मानते हैं। उनका कहना है कि सरकारों की यह हिम्मत तो नहीं है कि वे संवैधानिक तौर पर आरक्षण को खत्म कर सके, इसलिए वे ऐसे तरीके निकाल रही हैं जिससे आरक्षण व्यवहारिक तौर पर खत्म हो जाय या अत्यन्त नगण्य हो जाय। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक नेता और एकेडमिक काउंसिल के चुने सदस्य शशिशेखर सिंह कहते हैं कि असल में यदि यूजीसी का यह प्रस्ताव लागू हो जाता है तो, विभिन्न विश्वविद्यालयों में बहुत सारे ऐसे विभाग होंगे, जहां एक पद भी आरक्षित श्रेणी के लिए नहीं होगा।
दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग के प्रोफेसर चन्द्रभूषण गु्प्ता इसे आज के राजनीतिक हालातों से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि पिछलों वर्षों में, खासकर 2014 के बाद राजनीति में उच्च-जातीय मानसिकता के संगठनों और व्यक्तियों का प्रभाव काफी बढ़ गया, वे आरक्षण को कभी सीधी चुनौती देते हैं तो कभी पिछले दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की कोशिश करते हैं। यूजीसी का यह प्रस्ताव इसी की एक कड़ी है। उच्च-शिक्षा संस्थाओं से दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के शिक्षकों को बाहर करने का उद्देश्य इन ज्ञान-विज्ञान के बौद्धिक केंद्रों पर उच्च-जातियों के पूर्ण वर्चस्व का रास्ता फिर से खोलना है।
अपने इस नए प्रस्ताव का आधार यूजीसी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय को बनाया है, जिसमें न्यायालय ने कहा है कि आरक्षण की इकाई समग्र विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि विभाग होना चाहिए। न्यायालय के इस निर्णय को आज की राजनीति से जोड़ते हुए उत्तर प्रदेश एससी-एसटी और अन्य पिछड़़ा वर्ग आरक्षण संघर्ष समिति के संयोजक दुर्गा प्रसाद यादव कहते हैं कि आरक्षित वर्गों का संघर्ष कमजोर पड़ा है, उच्च जातियों का चौतरफा वर्चस्व बढ़ा है, इसमें न्यायालय भी शामिल है। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय का एससी-एसटी और ओबीसी पर पड़ने वाले प्रभाव के उदाहरण के रूप में हाल में स्थापित सिद्धार्थ विश्वविद्यालय को लेते हैं। वे बताते हैं कि इस विश्वविद्यालय में विभागों को इकाई मानकर असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के कुल 84 पद विज्ञापित किये गये,
यूजीसी के इस प्रस्ताव को यूजीसी से अनुदान प्राप्त 41 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में रिक्त पड़े 5 हजार 997 पदों पर होने वाली नियुक्तियों से जोड़ कर देखा जा रहा है। ये पद कुल पदों के 35 प्रतिशत हैं, जिनमें जल्दी नियुक्तियां होने वाली हैं। यदि विश्वविद्यालयों को इकाई मानने का नियम जारी रहता है तो कम-से-कम 3 हजार के आसपास पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी समुदायों सेे आने वाले शिक्षकों को नियुक्त करना बाध्यता होती। यदि विभाग को इकाई मानने का यूजीसी का नया प्रस्ताव लागू होता है, तो इन समुदायों के नहीं के बराबर शिक्षक नियुक्त होंगे। शिक्षा जगत, समाज और विशेष तौर पर बुहजन पर इसका कितना गंभीर और दूरगामी असर पड़ेगा, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। इन लगभग 6 हजार पदों में 2 हजार 457 पद असिस्टेंट प्रोफेसर, 2 हजार 217 एसोसिएट प्रोफेसर और 1 हजार 98 पद प्रोफेसर के हैं।
यदि विभागों को इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाता है, इसका क्या असर पडेगा, इस संदर्भ में भारत सरकार में पूर्व सचिव और इस मामले के विशेषज्ञ पी.एस. कृष्णनन ने ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा कि इसके चलते इन संस्थानों में एसस-एसटी और ओबीसी की शिक्षकों की संख्या अत्यन्त कम हो जायेगी। ज्ञातव्य है कि वैसे भी उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षित समुदायों के शिक्षकों की संख्या अत्यन्त कम है, खासकर प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर (रीडर) के पदों पर। इस संदर्भ में दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर में हिंदी विभाग के प्रोफेसर कमलेश गु्प्त आंकडों का हवाला देकर बताते हैं कि उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और कुलपति के रूप में एससी-एसटी और ओबीसी समुदाय के लोगों की संख्या अत्यन्त सीमित है।
यूजीसी द्वारा प्रस्तावित इस नई प्रक्रिया को सत्यवती कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर रविंद्र गोयल चोर दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की प्रक्रिया मानते हैं। उनका कहना है कि सरकारों की यह हिम्मत तो नहीं है कि वे संवैधानिक तौर पर आरक्षण को खत्म कर सके, इसलिए वे ऐसे तरीके निकाल रही हैं जिससे आरक्षण व्यवहारिक तौर पर खत्म हो जाय या अत्यन्त नगण्य हो जाय। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक नेता और एकेडमिक काउंसिल के चुने सदस्य शशिशेखर सिंह कहते हैं कि असल में यदि यूजीसी का यह प्रस्ताव लागू हो जाता है तो, विभिन्न विश्वविद्यालयों में बहुत सारे ऐसे विभाग होंगे, जहां एक पद भी आरक्षित श्रेणी के लिए नहीं होगा।
दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग के प्रोफेसर चन्द्रभूषण गु्प्ता इसे आज के राजनीतिक हालातों से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि पिछलों वर्षों में, खासकर 2014 के बाद राजनीति में उच्च-जातीय मानसिकता के संगठनों और व्यक्तियों का प्रभाव काफी बढ़ गया, वे आरक्षण को कभी सीधी चुनौती देते हैं तो कभी पिछले दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की कोशिश करते हैं। यूजीसी का यह प्रस्ताव इसी की एक कड़ी है। उच्च-शिक्षा संस्थाओं से दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के शिक्षकों को बाहर करने का उद्देश्य इन ज्ञान-विज्ञान के बौद्धिक केंद्रों पर उच्च-जातियों के पूर्ण वर्चस्व का रास्ता फिर से खोलना है।
अपने इस नए प्रस्ताव का आधार यूजीसी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय को बनाया है, जिसमें न्यायालय ने कहा है कि आरक्षण की इकाई समग्र विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि विभाग होना चाहिए। न्यायालय के इस निर्णय को आज की राजनीति से जोड़ते हुए उत्तर प्रदेश एससी-एसटी और अन्य पिछड़़ा वर्ग आरक्षण संघर्ष समिति के संयोजक दुर्गा प्रसाद यादव कहते हैं कि आरक्षित वर्गों का संघर्ष कमजोर पड़ा है, उच्च जातियों का चौतरफा वर्चस्व बढ़ा है, इसमें न्यायालय भी शामिल है। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय का एससी-एसटी और ओबीसी पर पड़ने वाले प्रभाव के उदाहरण के रूप में हाल में स्थापित सिद्धार्थ विश्वविद्यालय को लेते हैं। वे बताते हैं कि इस विश्वविद्यालय में विभागों को इकाई मानकर असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के कुल 84 पद विज्ञापित किये गये,
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